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________________ कर्म, आखिर कैसे करें ? २३ के हैं। व्यक्ति की भावदशा ही मुख्य है । एक यतनाचारी हिंसा होने पर भी हिंसाजनित कर्म से बचा रहता है, जबकि दूसरा अयतनाचारी अहिंसा का पालन करते हुए भी हिंसा के दोष का भागी बनता है । इसलिए ध्यान रखें, वह व्यक्ति जो अपनी मुक्ति के प्रति जागरूक है, जिसे मुक्ति का कोई मार्ग, मुक्ति का कोई धाम और मुक्ति का आनन्द चाहिए, वह अपने चित्त की सूक्ष्म से सूक्ष्म वृत्ति के प्रति भी सजग रहे । मन की हर धारा, हर भावदशा के प्रति सजग होना ही मुक्ति का द्वार है । दूसरा सूत्र है : न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्त वग्गा न सुया न बंधवा । एक्को सयं पच्चणु होई दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं ॥ महावीर ने बहुत सरल भाषा में अपनी बात कही है कि जाति, मित्रवर्ग, पुत्र, बान्धव आदि उस दुःख का विभाजन नहीं कर सकते। उस दुःख का अकेले ही अनुभव करना पड़ता है। कर्म कर्ता का ही अनुगमन करते हैं । व्यक्ति को लगता है कि पुत्र, परिवार, बान्धव आदि मेरे हैं, जो दुख आने पर साथ देंगे, पर क्या दुख का बँटवारा कोई कर पाता है? व्यक्ति बिस्तर पर पड़ा रहता है, बेटा या परिवारजन दवाई की सेवा का प्रबन्ध कर सकते हैं, पर बीमारी की पीड़ा तो व्यक्ति को स्वयं अकेले ही भोगनी पड़ती है। कर्म तो कर्ता को ही भोगने पड़ते हैं। व्यक्ति नितान्त अकेला है। आज सुबह ही एक सज्जन मुझसे पूछ रहे थे कि अमुक नगर में जो सन्त हैं, क्या वे आप ही के समुदाय के हैं? मैंने जवाब दिया, 'सब ही अपने हैं।' वे बोले, 'क्या मतलब?' मैंने कहा, 'पृथ्वी पर जितने भी प्राणी हैं, सभी या तो अपने हैं या फिर अपना कोई नहीं ।' वे समझ नहीं पाए। पर यह साफ है कि जन्म-जन्मान्तर की इस श्रृंखला में शायद ही ऐसा कोई जीव हो जिसके साथ अपना सम्बन्ध न रहा हो । जो आज हमारा मित्र है, हो सकता है वह किसी जन्म में हमारा शत्रु रहा हो और जो हमें आज शत्रु लगता है, वह न जाने किस जन्म में हमारा मित्र रहा हो । आप सब ही मेरे अपने हैं । देखो, कितनी आत्मीयता और अपनत्व के भाव आप लोगों के चेहरे पर खिल रहे हैं। मिलना-बिछुड़ना तो नदी - नाव का संयोग है। जिस तरह एक पेड़ पर साँझ को पक्षियों का झुण्ड एकत्र होता है और सुबह होने पर सब अपनी अपनी मंजिल की तरफ उड़ जाते हैं, यह स्थिति हमारी भी है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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