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________________ जागे सो महावीर ____ मैं राजर्षि प्रसन्नचंद्र की एक घटना का जिक्र करूँगा जिसका मैंने एकान्त क्षणों में अनेक बार मनन किया है। प्रसन्नचंद्र एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपने राजमहलों, परिजनों, सब सुख-सुविधाओं का त्याग कर दिया। एक-एक माह के उपवासी, एक पाँव जमीन पर, एक हाथ आकाश की ओर, परिग्रह के नाम पर शरीर पर सिर्फ एक वस्त्र....ऐसे घोर तपस्वी के बारे में जब राजा श्रेणिक द्वारा भगवान महावीर से प्रश्न किया जाता है कि 'भन्ते ! जिन क्षणों में मैंने उस तपस्वी के दर्शन किए यदि उन क्षणों में उनकी मृत्यु हो जाती तो उनकी क्या गति होती? महावीर कहते हैं, 'यदि उन क्षणों में राजर्षि की मृत्यु होती तो वे सातवीं नरक को प्राप्त होते।' ___ मैं इस घटना पर सहज ही मनन करता रहा है कि जिस व्यक्ति ने अपनी गति के लिए, मुक्ति के वास्ते इतनी व्यवस्थाएँ कर ली उसकी यह दशा? फिर मुक्ति का मार्ग कहाँ छिपा है ? तब यह बात समझ में आई कि मुक्ति किसी बाने में, वंश, नाम या कृत्य में नहीं है। व्यक्ति की मुक्ति का मार्ग तो उसकी भाव-दशा में छिपा है। उसकी भावदशा जितनी स्वच्छ और निर्मल होगी, उतना ही वह दिव्यत्व के करीब होगा। जब से यह समझ पाई है तब से श्रमणत्व का सार, मुक्ति का मार्ग कहीं खोजने का प्रयास भी किया है तो वह अपने सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों के प्रति जागरूकता में ही किया है। अपने हर विकल्प, हर भाव, हर विचार के प्रति सजगता। ऐसा नहीं है कि क्रोध-कषाय की तरंग मुझमें न उठती रही हो। आखिर मैं भी तो उसी शरीर को धारण किये हुए हूँ। मुझसे भी वही चित्त और उसके संस्कार जुड़े हैं। आखिर हम सब मनुष्य ही तो हैं। मनुष्य, मनुष्य का अपवाद नहीं हो सकता। हर किसी में हर तरह की सम्भावनाएँ व्याप्त रहती हैं। ___अपने चित्त में उठी हर विकृत तरंग के प्रति सजगता, विवेकशीलता ही हमें उस विकृति से मुक्त होने में सहायता देती रही है। बाकी तो दुनियाँ में व्यक्ति किसी व्यक्ति से बचने या न बचने से विकृत या अविकृत नहीं होता और किसी से जुड़ने पर पवित्र या अपवित्र नहीं होता। जिसको गिरना है, वह तो हिमालय पर्वत पर जाकर भी गिर सकता है और जिसको पवित्र रहना है वह किसी कोशा गणिका के पास रहकर भी पवित्र और अखंडित रह सकता है। ___ भावों में ही भावना भा ली जाती है, भावों में ही दान और दया सम्पन्न हो जाते हैं, भावों में भगवान की पूजा हो जाती है और भाव ही भाव में केवल ज्ञान। परमज्ञान आत्मसात् हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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