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________________ कर्म, आखिर कैसे करें ? भगवान कहते हैं – 'जब जब व्यक्ति जैसे-जैसे शुभ और अशुभ विचार करता है, वैसे ही उस-उस समय शुभ या अशुभ कर्म का बन्धन करता है।' यहाँ व्यक्ति के कर्म-बंध का बीज व्यक्ति का कृत्य नहीं, वरन् उसके भाव हैं अर्थात् कर्मबन्ध का मूल उसके भाव हैं और जैसी भाव-दशा, वैसी भव-दशा। भव और भाव में बहुत बड़ी समानता है। भव का अर्थ होता है 'होना' और भाव का अर्थ भी होता है 'होना' । जहाँ दोनों में ही होने की स्थिति, स्वभावजन्य स्थिति आ गयी, वहाँ भव और भाव दोनों एक ही अवस्था में होते हैं। लोग कहते हैं कि मरने के बाद भवभ्रमण होता है, पर मैं तो जब भी आदमी का मन टटोलता हूँ तो लगता है कि नहीं, भले ही मरने के बाद भवभ्रमण की नयी यात्रा प्रारम्भ होती होगी, पर व्यक्ति का मन तो अभी भी भवभ्रमण ही कर रहा है। __ अगर हम ईमानदारी से अपने मन का निरीक्षण करें तो देखेंगे कि धर्म की किताबों में जिस भवभ्रमण की बात कही गई है, वह भवभ्रमण तो हमारा मन अभी भी तो कर रहा है। व्यक्ति का मन दिन-रात इसीभ्रमण में तो लगा है। यदिधर्मग्रंथ किसी राजर्षि प्रसन्नचन्द्र का बखान करते हैं तो उसका कारण उनके निर्मल भाव ही हैं। किसी व्यक्ति का वेश, उसका स्थान, उसका कृत्य किसी बंध का कारण नहीं होता। यह संत का जो वेश पहन रखा है, वह तो सिर्फ इसलिए है कि यह सदैव इस बात का स्मरण दिलाता रहे कि तुम सन्त हो। व्यक्ति अपने भावों या विचारों के द्वारा ही कर्म-बन्ध करता है। योगी अपने भावों में कब भोगी बन जाए और भोगी अपने उच्च विचारों, शुभ भावों से कब योगी बन जाए, कहा नहीं जा सकता। एक ब्रह्मचारी कहलाने वाला व्यक्ति भी अपनी भाव-दशा में कई बार मैथुन का संसर्ग कर लिया करता है। अगर तुम्हें किसी पर क्रोध आ गया तो महत्त्व इस बात का नहीं है कि तुमने उस क्रोध को प्रकट किया या नहीं, बल्कि महत्त्व इस बात का है कि तुम्हारे चित्त पर क्रोध का संस्कार उदय हुआ, क्रोध की तरंगें उठीं। हाँ, प्रकट करने पर अवश्य ही उस भाव से बनने वाले कर्म का बन्धन प्रगाढ़ हो जाता है, पर भावों की श्रृंखला में तो न जाने हम कितने ही अपराध, कितनी ही माया, छल-प्रपंच, व्यभिचार, अभिमान, क्रोध, हत्या और न जाने कौन-कौन से पाप करते रहते हैं। भले ही घर में कुत्ते के रोजाना घुसने पर हम उसे मार नहीं पाते, पर मन में यह भाव तो बना ही रहता है कि कोई उसे लाठी से मार भगाए। हम अपनी भावदशाओं में न जाने ऐसे कितने ही पाप करते रहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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