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________________ जागे सो महावीर ___ २४१ आदमी अपनी साधना में इतना तल्लीन हो जाए कि उसे अपने लक्ष्य के अतिरिक्त न तो कुछ दिखाई दे और न ही सुनाई। सतत अभ्यास, सतत जागरूकता, सतत सन्नद्धता सफलता प्राप्त करने की बेहतर कला है। हो सकता है क्रोध करना व्यक्ति की मजबूरी हो अथवा ऐसा होना नियति हो, पर व्यक्ति स्वयं की भावदशा के प्रति सजग तो रह ही सकता है। कैसे साधे हम जागरूकता को, इसके लिए निवेदन है कि व्यक्ति होशपूर्वक चले, अन्यथा उसके पाँव खुले गटर में कब पड़ जाएँ, इसका पता नहीं चलता। तुम गाना गाते हुए, ऊपर फिल्म का पोस्टर देखते हुए चल रहे हो। तुम गा तो रहे हो 'सावन का महीना पवन करे शोर' और जब जाकर किसी कीचड़ या गटर के नाले में गिरते हो तब पता पड़ता है कि ऊपर वाला सावन नहीं नीचे गटर का सावन बरस रहा है। ___ व्यक्ति होशपूर्वक चले, ऐसा करने से वह गटर में गिरने से तो बच ही सकता है, साथ ही साथ अहिंसा-धर्म का सहजता से पालन हो सकता है। भगवान यह आत्म-जागरूकता का दीप जो हमें थमा रहे हैं, उनमें उनका कोई लाभ या स्वार्थ नहीं है। वह तो कृत्कृत्य हो चुके हैं, उनके द्वारा कुछ कहने का उद्देश्य सिर्फ यही है कि हर व्यक्ति उस दीप को जला सके जिसकी ज्योति व्यक्ति के जीवन को रोशन कर सके, उसे जीवन का राजमार्ग दिखा सके। अगर हमारा दीया जलेगा तो उन्हें कोई लाभ नहीं है। हम अपनी आत्मा पर ही उपकार कर रहे हैं। व्यक्ति की मूर्छा टूटे और आत्म-जागरूकता का दीप रोशन हो, इसीलिए भगवान अपने मुख से वाणी का उपयोग करते हैं। ___ आदमी वाणी का उपयोग भी होशपूर्वक करे। बोलने से पहले अच्छी तरह सोचले कि मैं जो बोल रहा हूँ, इसका क्या परिणाम होगा? ताकि बाद में पछतावा नहीं करना पड़े। आदमी की आदत होती है, किसी से मिलने के बाद जब वह बिछुड़ जाएगा तो बाद में उसकी स्मृतियों में खोए रहेगा। वह सोचता रहेगा कि मैंने उसको ऐसा कहा, अगर वैसा कहता तो ज्यादा अच्छा रहता, अगली बार जब मिलूँगा तो ऐसा कहूँगा। इससे अच्छा तो यह है कि सोच-समझकर बोलो ताकि बाद में तुम्हें अपने कहे शब्दों पर अफसोस न हो। ___ बैठो तो भी होशपूर्वक। जब तुम छोटे थे, मास्टरजी की कुर्सी पर नीचे से रस्सी बाँध देते और मास्टरजी जैसे ही कुर्सी पर बैठते, वैसे ही तुम रस्सी खींच देते, मास्टरजी सीधे जमीन पर आ जाते। यदि तुम होशपूर्वक नहीं बैठे तो यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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