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जागे सो महावीर चर्या पूर्ण करें, तब तक तुम यहीं खड़े रहो और यदि तुम्हें झूठ भी बोलना पड़े तो वह भी बोल देना लेकिन बीच में व्यवधान न आने पाए।
राजर्षि उदायी अभी भी उतने ही शान्त, सहज और प्रसन्नचित्त थे जितना कि वे नगर में प्रवेश करते समय रहे थे। उनके चित्त में रूखी रोटी को खाते हुए भी वैसी ही प्रसन्नता और समता थी। भगवान कहते हैं कि जिस चित्त में समता की ऐसी स्थिति बनी रहती है, वहीं सामायिक चारित्र होता है और वहीं वास्तविक सामायिक सधती है।
धन्य हैं ऐसे लोग जो अपने द्वार पर आए किसी संत को खाली हाथ नहीं लौटाते, चाहे इसके लिए उन्हें राजाज्ञा को भी नकारना पड़े और तब कहते हैं कि राजर्षि उदायी जब महावीर के पास पहुँचते हैं तो स्वयं महावीर उनके सम्मान में खड़े हो जाते हैं और कहते हैं, 'धन्य है तुम्हारी समता और सहजता, धन्य है तुम्हारा सामायिक चारित्र! ___ यही है, चित्त की हर हालत में रहने वाली समतावृत्ति जिसकी महावीर ने प्रथम आवश्यक के रूप में अपनी ओर से निरंतर प्रेरणा दी।
भगवान ने दूसरे 'आवश्यक' के रूप में जिसे प्रतिपादित किया, वह है स्तवन या संस्तुति। __स्तवन का अर्थ है, 'तीर्थंकरों के नामों की निरुक्ति तथा उनके गुणों का कीर्तन करना।' गंध-पुष्प-अक्षत आदि से पूजा-अर्चना करके मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक उन्हें प्रणाम करना स्तवन नामक 'आवश्यक है।
धन्य हैं वे हाथ जो प्रतिदिन परमात्मा की पूजा-अर्चना किया करते हैं। धन्य हैं वे कान जो प्रतिदिन परमात्मा की वाणी और परमात्मा के गुणों का श्रवण किया करते हैं। धन्य हैं वे कण्ठ जो परमात्म-स्तुति-कीर्तन के लिए मुखरित होते हैं और धन्य हैं वे नेत्र जो परमात्म-पुरुष के दर्शन को तत्पर रहते हैं। जो न केवल किसी मंदिर की प्रतिमा में, वरन् प्रत्येक प्राणी में ही उस प्रभु के दर्शन किया करते हैं, ऐसे नेत्रों का बाजार में विचरण भी मंदिर में परिक्रमा लगाने के समान होता है।
मैं बाबा फरीद के जीवन की एक असाधारण घटना का उल्लेख करना चाहूँगा। बाबा फरीद हिन्दू और मुस्लिम- दोनों ही संप्रदायों में समान रूप से प्रिय थे। वे कहा करते थे कि 'खुदा मुझ में है, मैं खुदा में हूँ। सत्य मुझमें स्थित है, मैं सत्य में स्थित हूँ।' उनकी ईश्वर के प्रति अटूट आस्था थी।
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