SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धार्मिक जीवन के छह सोपान - समय में स्थित होना समग्र अस्तित्व से जुड़ जाना है । समय में स्थित होना सिद्धांत-चक्रवर्ती बन जाना है, समत्व - योग और श्रमणत्व योग को जीना है । भगवान ने सामायिक के दो स्वरूप बताए। एक तो द्रव्य या बाह्य सामायिक और दूसरा तत्त्वत: की जाने वाली निश्चय सामायिक। द्रव्य सामायिक वह है जहाँ व्यक्ति दो घड़ी अथवा पाँच घड़ी अपने आपको एक जगह स्थित करके उस समय के लिए सभी सावद्य व्यापारों का, आरम्भसमारम्भ और हिंसाजनित कार्यों का त्याग कर देता है । यह सामायिक का बाह्य स्वरूप है जो आसन बिछाकर, मुँहपत्ती बाँधकर या हाथ में रखकर और चरवला कर की जाती है । यह सामायिक तो सामायिक का अभ्यास मात्र है जहाँ व्यक्ति ने स्वयं को हिंसाजनित क्रियाओं से बचाते हुए दो घड़ी के लिए स्थापित किया है । लेकिन वास्तविक सामायिक तो तब होती है जब व्यक्ति राग, द्वेष, काम, क्रोध या कषायजनित कैसी भी विपरीत परिस्थिति से स्वयं को मुक्त रखता है और स्वयं के चित्त में समता और सहजता रखता है । २०९ तिनके या सोने में, पाने या खोने में, लाभ या हानि में, मिट्टी या हीरे में, संयोग या वियोग में, जहाँ प्रत्येक परिस्थिति में व्यक्ति अपने चित्त में समता, शान्ति और समभाव बनाए रखता है, उसे ही भगवान शुद्ध सामायिक कहते हैं । सृष्टि के हर प्राणी के प्रति समदर्शिता और समवृत्ति ! विपरीत परिस्थितियाँ अवश्य बनती हैं, पर व्यक्ति उन परिस्थितियों पर कितनी सहजता से विजय पाता है, यही बात सामायिक की कसौटी है । अनुकूलता या प्रतिकूलता दोनों में ही व्यक्ति की समता की परख होती है । अनुकूलता जहाँ व्यक्ति के चित्त में अहंकार पैदा करती है, वहीं प्रतिकूलता व्यक्ति को खिन्न और उद्विग्न बना देती है । यदि कोई तारीफ करे या गुणों की यशोगाथा गाए तो यह अनुकूलता व्यक्ति के चित्त में अहंकार ला देती है । वह व्यक्ति यह सोचकर खुश होता है कि अहो ! मेरी कितनी प्रशंसा हो रही है। दूसरी तरफ यदि किसी की निन्दा की जाए, उसकी टीका-टिप्पणी, आलोचना या समालोचना की जाए तो वह व्यक्ति मन में सोचता है कि 'अरे! यह कौन-सा दूध का नहाया है जो मेरी बुराई करता है?' इस प्रकार प्रतिकूलता ने चित्त में आकु लता पैदा कर दी, आक्रोश, खिन्नता और वैर-विरोध की भावना को जन्म दे दिया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy