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सामाइयं चउवीसत्थओ, वंदणयं । पडिक्कमणं काउस्सग्गो पच्चक्खाणं ॥
भगवान कहते हैं, 'सामायिक, चतुर्विंशति जिनस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान ये छह आवश्यक कर्म हैं । '
जागे सो महावीर
वे कर्म ‘आवश्यक' कहलाते हैं जिन्हें अवश्यमेव करना चाहिए और जिन कृत्यों को करने की भगवान द्वारा निरन्तर प्रेरणा दी गई है। ये आवश्यक कर्म, गृहस्थ हो या संत, दोनों के लिए हैं । प्रतिदिन श्रावक और साधु को इन छ: आवश्यक कृत्यों का आचरण करना चाहिए।
आज मैं इन छ: सन्दर्भों पर इसलिए भी चर्चा करना चाहूँगा कि हम लोग इन छः बातों को जीने की कोशिश करते हैं । सामायिक या प्रतिक्रमण करते समय हमारी यह कोशिश रहती है कि ये छ: आवश्यक कर्म हमारे द्वारा सम्पादित हो जाएँ। मैं चाहूँगा कि आज इन छह सोपानों या आवश्यक कार्यों के बारे में हम सहजता से थोड़ा समझने का प्रयास करें ।
पहला आवश्यक कृत्य है सामायिक । महावीर की समस्त साधना का केन्द्र बिन्दु सामायिक है। सामायिक ही वह धरातल है जहाँ महावीर की साधना का महल खड़ा है। सामायिक शब्द की उत्पत्ति समय से हुई है। समय का अर्थ होता है सिद्धांत, समता या आत्मा । आम मनुष्य का जीवन जहाँ ममता पर टिका रहता है, वहीं महावीर समता की प्रेरणा देते हैं । ममता और समता दोनों ही सहायक बन जाते हैं, पर विषमता तो तब पैदा होती है जब दोनों में अन्तर्द्वन्द्व छिड़ता है। यदि ममता, ममता रहे और समता, समता रहे यानी दोनों अपने-अपने स्थान पर कायम रहें तो विषमता का जन्म ही न हो पाएगा ।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन ने इस समग्र अस्तित्व के निर्माण में जिस पहलू को सहायक माना है, उनमें दो तत्त्व शामिल रहे हैं। पहला तो 'समय' और दूसरा 'आकाश' अर्थात् उनकी सभी व्याख्याएँ टाइम और स्पेस से जुड़ी रहीं ।
आज की दुनिया का वह महान् वैज्ञानिक जिसने सृष्टि की सारी व्यवस्था को अपने हिसाब से,अपने सिद्धांतों, अपने वैज्ञानिक या गणितीय सूत्रों और आविष्कारों से प्रतिपादित और निरूपित किया, वे दो बातें ही अर्थात् समय और आकाश प्रमुख रहीं ।
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