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जागे सो महावीर
__जहाँ अनुकूलता को पाकर व्यक्ति के चित्त में अहंकार न जगेऔर प्रतिकूलता खिन्नता, खेद, आक्रोश और वैर-विरोध को पैदा न कर सके, वही व्यक्ति की सामायिक है।
जो लोग प्रतिदिन व्यावहारिक सामायिक सम्पादित करते हैं, वे दो घड़ी के लिए सावध व्यापारों एवं हिंसाजनित क्रियाओं से परहेज रखकर स्वयं को किसी एक जगह स्थित करते हैं। मैं निवेदन करूँगा कि वे सामायिक के वास्तविक स्वरूप को भी समझने एवं जीने का प्रयास करें।
अगर आप को क्रोध आता है तो तब एक ऐसी सामायिक शुरू की जाए जो आपके क्रोधी स्वभाव को बदल सके और आपको समतादे सके। अगर चित्त में समता आ गई तो सामायिक स्वयं ही हो जाएगी और अगर चित्त में ही अभी भी विषमता बनी हुई है, क्रोध, चिड़चिड़ापन और अहंकार जगता है तो सामायिक के लाखों-लाख अनुष्ठान कर लो, तब भी वह जीवन के आध्यात्मिक सौन्दर्य और सुषमा को निखारने में समर्थ नहीं हो पाएगी।
मैं जिक्र करना चाहूँगा एक ऐसे भावभीने प्रसंग का जिसे याद कर-करके मैं अभिभूत होता हूँ। यह प्रसंग जुड़ा है राजा उदायी के जीवन से। कहते हैं : एक बार राजा उदायी अपने राजमहल के झरोखे में बैठे हुए आकाश में बनते-बिगड़ते बादलों को देख रहे थे। बादलों की बनती और बिगड़ती स्थिति ने उनके चित्त में ऐसा परिवर्तन ला दिया कि वे उसी क्षण वैराग्यवासित हो गए। चूँकि उनके कोई पुत्र तो था नही, उन्होंने अपने एक दूर के परिचित व्यक्ति को सिंहासन सौंपकर संन्यास ग्रहण कर लिया। वे राजमहलों को छोड़कर जंगलों की तरफ चल दिए। कुछ दिनों बाद वहीं उन्हें भगवान महावीर का सान्निध्य मिला जिससे उनका वैराग्य भाव और भी अधिक दृढ़ हो गया।
एक बार राजर्षि उदायी ने भगवान महावीर से निवेदन किया, 'प्रभु ! मैं आपके शान्ति, अहिंसा, करुणा और दयामार्ग के प्रचार-प्रसार के लिए मैं इन्हें उस राज्य में ले जाना चाहता हूँ जहाँ का कभी मैं राजा हुआ करता था। आपके संदेश को वहाँ प्रचारित करने में मुझे सुविधा रहेगी क्योंकि वहाँ सभी लोग मेरे पूर्व परिचित हैं। भगवान ने उदायी की बात सुनकर साधुवाद दिया और अपनी अनुमति प्रदान की । राजर्षि उदायी भगवान महावीर का सान्निध्य छोड़कर अपने राज्य की तरफ चल पड़े। जब उस राज्य के राजा को इस बात का पता चला कि राजर्षि
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