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________________ विवेक : अहिंसा को जीने का गुर २०१ करनी पड़ेगी। तीसरा फायदा यह होगा कि अगर किसी गटर का ढक्कन खुला हुआ है तो आप उसके अंदर गिरने से बच जाएँगे। एक भाई ने मुझे बहुत ही अजीब किस्सा सुनाया। वह कह रहे थे कि आज तो बहत ही गजब हो जाता। मैंने पूछा, 'भई ! ऐसा भी क्या हो जाता?' वह बोले, 'अरे! आज तो मेरी बीवी गटर में बह ही जाती।' मैंने पूछा, 'वह कैसे?' वह बोले, 'वह फिल्म देखने की तो बहुत शौकीन है। हम जिस रास्ते से आ रहे थे, वहाँ चार-पाँच सिनेमा हॉल पड़ते थे। अतः अपने स्वभावानुसार वह ऊपर लगे हुए फिल्म के पोस्टर देखती हुई चल रही थी। दस कदम दूर पर ही गटर का ढक्कन बरसाती नाले की वजह से खुला पड़ा था। वह देख तो रही थी ऊपर करिश्मा कपूर को और नीचे करिश्मा हुआ कि उसका पाँव सीधे खुले गटर में पड़ गया। वह तो उस गटर में बह ही जाती क्योंकि बरसाती नाले की वजह से बहाव बहुत तेज था, पर संयोग से उसके हाथ ऊपर थे और वह किसी जगह अटक गए। वह बहने से बच गई। गनीमत है कि उसकी चप्पल ही गटर में बही और वह बच गई। सावधान ! तुम्हारा असावधानी से चलना गटर में गिरना हो सकता है। ईर्या समिति का पालन तुम्हें भावी खतरे से बचा सकता है। चौथा और बहुत ही महत्त्वपूर्ण फायदा यह है कि अगर आप देखकर चलते हैं तो राह में चलते किसी टिड्डे, मकोड़े, बिच्छू, चींटी या किसी अन्य जीवजन्तु को पाँव के नीचे आकर मरने से बचा सकते हैं। अभी तो आप ऐसे चल रहे हो कि आपके पाँव के नीचे आकर कोई चींटी आदि मर भी जाती है तो आपको कोई परवाह नहीं रहती लेकिन जिस दिन ऐसे ही सौ चींटियाँ मरकर साँप बन गईं और आपके पाँव को उसने काट खाया, तब क्या होगा? गनीमत है कि आपका पाँव अब तक किसी बिच्छू पर न पड़ा। हम देखकर चलें, बोध और विवेकपूर्वक चलें, यही अहिंसा की ईर्या समिति है। ___ दूसरी समिति है भाषा समिति। भाषा समिति यानी सम्यक् वाणी। बुद्ध ने इसे अष्टांगिक आर्य मार्ग का एक चरण माना है। बोलना एक बहुत बड़ी कला है। जो मन में आया सो बोल दिया, यह बोलना नहीं, बकना है। क्या बोलना, कब बोलना, कैसे बोलना, यह समझ जरूरी है। जितनी जरूरी यह है उतनी ही यह भी जरूरी है कि क्या न बोलना, कब न बोलना, कैसा न बोलना, वाणी के विवेक के लिए यह भी एक अनिवार्य पहलू है। वाणी तो सरस्वती का अनुष्ठान है। तुम वाणी का इस तरह उपयोग करो कि हर शब्द का उपयोग अपने आप में माँ सरस्वती के चरणों में फूल समर्पित करने के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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