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________________ जागे सो महावीर अलग-अलग देख सकता है । इसीलिए भगवान ने कहा, 'विवेक ही धर्म का जनक है। विवेक ही धर्म को बढ़ाने वाला है, विवेक ही धर्म का पालन करने वाला है और विवेक ही एकांत सुखावह है । ' १९६ इसी सन्दर्भ में अगला सूत्र है - मरदु व जियदु व जीवो, अयदारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णत्थि बंधो, हिंसा मेत्तेण समिदीसु ॥ जीव मरे या जिये, अयतनाचारी को हिंसा का दोष अवश्य लगता है, किन्तु समितियों में प्रयत्नशील है, उससे बाह्य हिंसा हो जाने पर भी उसे कर्मबन्ध नहीं होता । भगवान ने कहा कि जो विवेक से अथवा यतना से जीते हैं उनके द्वारा पाप होने पर भी उन्हें पाप नहीं लगता जबकि अविवेकी यदि बाह्यदृष्टि से पाप न भी करे तो भी उसके द्वारा दिन-रात पाप का अनुबंध जारी रहता है। पाप का सम्बन्ध जीव के मरने या जीने से नहीं है, वरन् पाप का सम्बन्ध जीव के प्रति रहने या ना रहने वाली करुणा और दया की भावना से है। यदि आप किसी कार्य को विवेकपूर्ण ढंग करते हैं और फिर भी कोई जीवहिंसा होती है तो आप महावीर की दृष्टि से पाप के भार से मुक्त हैं। जीव तो प्रतिपल पैदा हो रहे हैं और मर रहे हैं । अनन्तानन्त जीव इस पृथ्वी पर भरे पड़े हैं। मूल्य जीव के जीने या मरने का नहीं है, वरन् महत्त्व तो हमारा उस जीवन के प्रति रहने वाले दृष्टिकोण का है । गीता में जब भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि यह जो अधर्म के द्वार पर खड़े हैं, इन्हें मार पटक । तो क्या यह हिंसा नहीं थी? यह हिंसा थी, पर इस सूत्र के द्वारा भगवान यही तो संदेश दे रहे हैं कि मूल्य व्यक्ति के मरने या जीने का नहीं अपितु मूल्य है उसके प्रति रहने वाले भावों का। यदि कोई हमारी बहिन-बेटियों की इज्जत पर हाथ डाले तो क्या हम अहिंसा का नारा लगाकर चुपचाप खड़े रहेंगे? या फिर हमारे मंदिर-मस्जिद और इबादतगाहों पर हमले किए जाएँ तो भी क्या हमारी चेतना दुबकी रहेगी? ध्यान रखें, अहिंसा कायरता का मार्ग नहीं बताती वरन् अहिंसा को तो वही जी सकता है जिसके पास वीरत्व और पुरुषत्व हैं। ऐसा समझें कि जैसे कोई न्यायाधीश है और वह यदि चोर को दण्डित करता है तो वह अहिंसा अपने जीवन में कैसे जी सकता है? वह अहिंसा निश्चित रूप से जी सकता है । न्याय करना, किसी अपराधी या चोर को दण्डित करना तो न्यायाधीश - पद के साथ इंसाफ करना है जबकि अहिंसा, दया और करुणा उसके व्यक्तिगत और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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