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विवेक : अहिंसा को जीने का गुर
जितना किसी राम और कृष्ण के लिए रामलीला और कृष्णलीला करना सहज और आनन्ददायक होता है। धर्म का सार सूत्र है - विवेक से चलो। विवेक से बैठो। विवेक से बोलो। विवेक से सोओ। विवेक से खाओ। सब कुछ विवेकपूर्वक संपादित करो। जहाँ जीवन की हर गतिविधि पर विवेक का अंकुश, विवेक का प्रकाश रहता है, वहाँ कहीं भी पापानुबंध नहीं होते । गीता कहती है, 'तुम कर्ताभाव
मुक्त होकर कार्य करो। तुम निष्पाप रहोगे । सदैव ध्यान रखो कि विवेक ही वह सच्चा गुरु और अंतरंग मित्र है जो हर फिसलन से व्यक्ति को बचा लेता है । विवेक है तो क्रोध भी बुरा नहीं है। अगर आपको दाम्पत्य-जीवन जीना है, जिएँ, पर विवेक बनाए रखें। अगर आपको कहीं जाना है, तो विवेक को भी साथ ले जाएँ। अगर आपको आजीविका के साधन जुटाने हैं, तो जरूर जुटाइये पर इस बात का विवेक सदा रखें कि कितना त्यागूं और कितना रखूँ ?
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अगर आपमें विवेक है तो क्रोध आ ही नहीं सकता। विवेक के अभाव का नाम ही तो क्रोध है । आपको क्रोध करने की पूरी अनुमति है पर शर्त यह है कि आपका विवेक उन क्षणों में भी बना रहे। अगर विवेक है तो तुम क्रोध कर ही न सकोगे। विवेकपूर्वक किया गया क्रोध, क्रोध नहीं बल्कि जीवन का अनुशासन कहलाएगा। अगर आप तम्बाकू खाते हैं, गुटखा खाते हैं या शराब पीते हैं तो बड़े आराम से अपने शौक फरमाइए । आखिर यह सब तुम अपने बलबूते पर ही तो करते हो। पर मैं यह निवेदन करना चाहूँगा कि तुम अपने विवेक को, अपने होश को हर क्षण कायम रखो । आत्मनियत्रंण को ध्यान में रखते हुए व्यक्ति यदि किसी बुरे मार्ग पर भी चलने लग जाए तो आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, एक न एक दिन वह अपनी सभी बुराइयों से मुक्त हो जाता है। उसका विवेक उसे गर्त में गिरने से बचा लेगा । विवेक उसे थाम लेगा । यदि व्यक्ति में विवेक है तो वह आज भले ही भांग पीकर बेसुध हो जाए, पर जैसे ही वह अपने विवेक का उपयोग करेगा, एक न एक दिन भांग उससे छूट ही जाएँगी ।
विवेक ही तो व्यक्ति की हंसदृष्टि है जो उसे अच्छे और बुरे का बोध कराती है। हंसदृष्टि अर्थात् हंस की ऐसी दृष्टि होती है कि वह दूध और पानी को अलग अलग कर देता है । यद्यपि मैंने कभी ऐसे हंस को नहीं देखा और आपने भी नहीं देखा होगा। यह तो प्रतीक है। हंसदृष्टि अर्थात् विवेक प्राप्त हो जाने पर ही तो व्यक्ति जड़ और चेतन, आत्मा और देह, सत्य और झूठ
में अन्तर कर उन्हें
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