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जागे सो महावीर
जयणा की ऊँची मंजिलों को छू लिया है, वही तो जिन है। महावीर के समस्त शास्त्रों और सिद्धान्तों को यदि दो शब्दों में व्यक्त करना हो तो मैं कहूँगा कि संसार की नदिया के दो किनारे हैं-अहिंसा और विवेक। अहिंसा को उसके व्यावहारिक तरीके से जीने का गुर है विवेक।
विवेक मार्ग है तो अहिंसा उसकी मंजिल। विवेक गति है तो अहिंसा उसका गंतव्य। विवेक यदि साधना है तो अहिंसा साध्य। अहिंसा को साधने के लिए विवेक की साधना तो करनी ही पड़ेगी। विवेक, किसी व्यक्ति की हथेली पर रखा हुआ वह दीपक है जो अहिंसा के मार्ग को आलोकित और प्रदर्शित करता है। विवेक व्यक्ति का नेत्र है। जैसे व्यक्ति नेत्रों के द्वारा अपने कार्य सम्पादित करता है
और अपनी मंजिल को प्राप्त करता है, वैसे ही विवेक के नेत्रों के द्वारा व्यक्ति जीवन की मंजिल तक पहुंचता है। व्यक्ति की तीसरी आँख या शिवनेत्र भी विवेक ही है।
कोई अगर मुझसे पूछे तो मैं कहूँगा कि विवेक मेरा गुरु है। मैंने संन्यास लेने के बाद अपने असली गुरु की खोज प्रारम्भ की। एक ऐसे गुरु की जो केवल चोटी ही न ले या केवल संन्यास का वेश ही प्रदान न करे वरन् जो अन्तरात्मा में भी परिवर्तन ला दे। एक ऐसे गुरु की तलाश प्रारम्भ की जो मेरे अन्तस् में छाए हुए अज्ञान के तमस् और अशान्ति के कोहरे को छाँट सके और मुझे मेरे सहज स्वरूप और शान्ति का स्वामी बना सके। उस गुरु की तलाश में, मैं हिमालय की ऊँची चोटियों तक पहुँचा। वहाँ की कन्दराओं में रहने वाले ऋषियों- मुनियों से भी मिला। पर वहाँ जाकर भी अन्तत: जिस तत्त्वको गुरु माना, भगवत्-तुल्य शास्ता माना, जीवन का शिव-नेत्र जाना, वह है आदमी का अपना विवेक। ___ संसार में कोई तीर्थ, कोई मन्दिर, कोई तीर्थंकर और कोई गुरु विवेक से बड़ा नहीं हो सकता। व्यक्ति को उसके लक्ष्य या गंतव्य तक पहुँचने के लिए एक अकेला मार्ग है- विवेक। अहिंसा और विवेक के दो फूल ही जीवन में मुक्ति की सुरभि प्रकट करने में पर्याप्त हैं।
भगवान के जिन सूत्रों को आज हम छूने की कोशिश कर रहे हैं उनमें महावीर ने मनुष्य के जीवन को मर्यादित करने के लिए उसे दो किनारों से बांध दिया है। पहला किनारा है अहिंसा और दूसरा किनारा है विवेक।
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