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________________ विवेक : अहिंसा को जीने का गुर १९३ जयणा उधम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव। तव्वुड्ढीकरी जयणा, एगंत सुहावहा जयणा।। समग्र जिनशासन का सार इस सूत्र में समा गया है। महावीर ने इस एक सूत्र के द्वारा बहुत बड़ा खजाना दे दिया है। किसी संजीवनी बूटी के समान यह सूत्र है। भगवान कहते हैं – 'यतनाचारिता धर्म की जननी है।' यतनाचारिता धर्म की पालनहार है। यतनाचारिता धर्म को बढ़ाती है। यतनाचारिता एकान्त सुखावह है। हम भगवान की प्राचीन भाषा को आज की अपनी भाषा में समझें। महावीर कहते हैं – 'अहिंसा धर्म की माँ है। विवेक धर्म का जनक है।' विवेक पिता है और अहिंसा माता। जिसके 'जयणा' जीवन पर माता-पिता की छत्रछाया है. वह अपने साथ हजारों आशीष लिये चलता है। जिसके जीवन में विवेक और अहिंसा है, वह स्वयं भी सुरक्षित है और उससे अस्तित्व भी सुरक्षित है। जैसे किसी व्यक्ति के लिए अपनी माँ का मूल्य होता है, वैसे ही धार्मिक या मानवीय व्यक्ति के लिए अहिंसा का महत्त्व होता है। जैसे कोई व्यक्ति माता के ऋण से उऋण नहीं हो सकता, वैसे ही धार्मिक व्यक्ति भी अहिंसा माँ के ऋण से उऋण नहीं हो सकता। क्योंकि अहिंसा ही तो उसके अस्तित्व को बनाए रखने का आधार है। जिसने 'यतना' को समझा है, वह यतनाचारिता से कभी उऋण नहीं हो सकता। संसार या सम्पूर्ण सृष्टि में यह संभव ही नहीं है कि कोई व्यक्ति अहिंसा का पूर्ण जीवन जी सके। यदि यह संभव हो सकता है तो मात्र एक यतना तथा विवेक के द्वारा ही संभव है। भगवान से उनके ही शिष्यों के द्वारा प्रश्न किया गया, 'भन्ते ! आपने अहिंसा को परम धर्म बताया है, पर इस धर्म का पूर्ण पालन तो अत्यंत दुष्कर है; क्योंकि यदि हम भोजन खाते हैं तो उसमें भी हिंसा है। बोलते हैं तो उसमें भी हिंसा है, चलते हैं तो उसमें भी हिंसा है। यहाँ तक कि साँस लेते और छोड़ते हैं तो उसमें भी हिंसा है। किसी में वायु से जुड़ी हिंसा है तो किसी में अग्नि से जुड़ी हिंसा है तो किसी में पृथ्वी से जुड़ी हिंसा। किसी क्षण हम किसी को सता देते हैं तो किसी क्षण हम किसी के द्वारा सता दिये जाते हैं। जब हर ठौर हिंसा अवश्यम्भावी है तो फिर हम कैसे चलें, कैसे जिएँ ताकि हम पापकर्म के बन्धन से बच सकें?' भगवान ने एक ही शब्द द्वारा उनके सभी प्रश्नों का समाधान कर दिया। भगवान ने कहा, 'यतना (विवेक) से चलो, यतना से बैठो, यतना से सोओ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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