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________________ विवेक : अहिंसा को जीने का गुर १९१ रूप में है, यहाँ आतंकवादियों द्वारा क्रूर हमले किए जाने पर भी देश का धैर्य धन्यवाद का पात्र है। यदि वह चाहता तो यहाँ बैठे-बैठे मिसाइल और रॉकेट दाग कर दुश्मन के देश का सफाया कर सकता था, पर उसने अपना धैर्य बनाए रखा। ___ यह वह देश है जो नहीं चाहता कि किसी एक या कुछ उपद्रवी लोगों के कसूर की सजा, हजारों बेकसूर व्यक्तियों को भुगताए और उन्हें भी मुसीबत में डाले। यहाँ इस बात के भरसक प्रयास किए जाते हैं कि अशान्ति के चौराहों से भी शान्ति की कोई गली खोज ली जाए। कोशिश की जाती है कि युद्ध की विभीषिका को टाला जा सके तो श्रेयस्कर है। भगवान महावीर न केवल वर्ग विशेष या देशविशेष में वरन् सम्पूर्ण विश्व में अहिंसा की उसी प्रकार प्रतिष्ठा करना चाहते हैं, जैसे कि आज हम भगवानों की प्रतिमाओं की किन्हीं मन्दिरों में प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं। भगवान के अनुयायियों ने जितना पुरुषार्थ, उनके जगह-जगह मन्दिर बनाने में किया है, उसका आधा पुरुषार्थ भी यदि वह भगवान महावीर के संदेशों के प्रचार-प्रसार करने में और सारे विश्व में उनके अहिंसा-केन्द्रों को बनाने में करते तो आज विश्व का कुछ और ही रूप नजर आता और सारा विश्व शांति और अहिंसा के लिए इस धर्म का ऋणी रहता। भगवान अहिंसा के जिन सूत्रों की चर्चा करना चाहते हैं, उसका कारण यह है कि व्यक्ति अहिंसा को बारीकी से जी सके और उसके व्यावहारिक रूप को आत्मसात कर सके। अहिंसा धर्म का जो स्वरूप आज बचा है, वह इतना क्लिष्ट है कि अहिंसा, स्वयं ही अपने सिद्धान्त के दायरों में घिर गयी है। अहिंसा जो प्राणिमात्र के लिए वरदान साबित होनी चाहिए थी, वह न हो पाई। __ भगवान ने अहिंसा के साथ अनेकान्त का आयाम भी जोड़ा और उस अहिंसा पर अचौर्य एवं अपरिग्रह का अवलेह भी लगाया। पर हमने अनेकान्त को तो दरकिनार कर दिया, अचौर्य एवं अपरिग्रह को किसी तल-भवरे में उतार दिया। एक अकेली बच गई अहिंसा। लेकिन अकेली उस माँ भगवती अहिंसा को भी अपना लिया जाए तो ऐसा कर के धर्म को आचरित और आत्मसात् किया जा सकता है। अहिंसा को व्यावहारिक तरीके से जीने के लिए महावीर ने एक बहुत ही छोटा-सा शब्द दिया। वह शब्द है - जयणा या यतना। यतना अर्थात विवेक। जैन वह नहीं जो जैन कुल में जन्म ले, जैन वह है जो जयणा से जिए। जिसने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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