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व्रतों की वास्तविक समझ
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का मन ही है जहाँ किसी की रोक-टोक नहीं होती। बाहर तो यूंघट निकाला जा सकता है, पर मन पर तो कोई परदा नहीं डाल सकते। यह तो व्यक्ति की प्राइवेट प्रोपर्टी' है, जिसे वह जहाँ चाहे, उसे ले जा सकता है।
वह लगातार बारह वर्ष तक इसी तरह नागिला की याद में खोया-खोया चारित्र का बाहरी पालन करता रहा। बारह वर्ष बाद जब भवदत्त का स्वर्गवास हो गया तो भवदेव ने विचार किया कि जिस भाई की लाज की खातिर मैंने साधुवेश स्वीकार किया, वह भाई ही अब नहीं रहा तो मुझे अब अपनी प्राणप्रिय पत्नी नागिला के पास चल देना चाहिए। __भवदेव अपने ग्राम की तरफ रवाना हो गया। वह रास्ते में सोचता चल रहा था कि क्या नागिला अब भी वैसी ही सुन्दर और कमनीय होगी? क्या अब भी उसके चेहरे पर वैसी ही गुलाबी आभा होगी? क्या अब भी उसकी हँसी ऐसी लगती होगी मानो चमेली के फूल खिले हों? यह सोचते-सोचते भवदेव गाँव में पहुँच गया। वह सोच ही रहा था कि नागिला का पता किससे पूछू, उसे सामने पनघट पर दो स्त्रियाँ पानी भरती नजर आई। __वह उनके समीप पहुँचा और एक स्त्री से पूछा, 'क्या तुम नागिला का पता जानती हो?' वह स्त्री बोली, 'तो स्वामी आप आ ही गए। जिस नागिला के लिए आप इतनी दूर चल कर आए हैं, वह नागिला मैं ही हूँ।' भवदेव नागिला का यह साधारण रूप रंग देखकर चकित हो गया। नागिला बोली, 'स्वामी, ये बारह वर्ष मैंने निरन्तर आपके चिन्तन में बिताए हैं। मैं एक क्षण के लिए भी आपको भूल न सकी। हर पल आपका स्मरण बना रहता था।' भवदेव ने कहा, 'मैं भी तुम्हें एक क्षण के लिए भी न भुला पाया। आओ, अब हम अपने स्थान पर चलें जहाँ हम सुखपूर्वक रह सकें।' भवदेव का यह वाक्य सुनते ही नागिला चौंकी और दो कदम पीछे हट गई। उसे अहसास हुआ कि संतप्रवर के मन में कुछ और बात है।
वह दृढ़तापूर्वक बोली, 'संतप्रवर ! इस संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ आप और मैं एक साथ रह सकें। मैं नहीं चाहती कि मेरे हृदय में आपका जो स्थान है, वह खत्म हो जाए। मैंने इन बारह वर्षों में आपके अतिरिक्त किसी का स्मरण नहीं किया है। मेरा स्मरण, प्रेम, श्रद्धा, पूजा और अर्चना सब आपके इस चारित्र-जीवन के प्रति समर्पित रहे। मैं आपको अव्रती, व्रतरहित या व्रत से गिरा हुआ कभी नहीं देख सकती। पत्नी तो वही होती है जो पति को पतन से बचाए।'
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