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________________ १८६ जागे सो महावीर भाँति जानते थे। तभी तो सातवीं नरक भी स्त्री के लिए नहीं बताई गई है। पुरुष तो अपने कृत्यों से सातवीं नरक से भी आगे बढ़ जाते हैं। नारी नजर नीचे करके चलती है या फिर अपनी नजरें झुका लेती हैं, लेकिन पुरुष अपनी निगाहें ऐसी ऊँची करके चलेंगे जैसे सारा संसार ही उनकी मिलकियत है। स्त्रियों की जगह पुरुष के लिए बूंघट की व्यवस्था होनी चाहिए। यदि कोई पुरुष स्थूलिभद्र की तरह दृढ़ हो जाए तो उसे एक कोशा गणिका तो क्या, हजार गणिकाएँ भी उसे उसके पथ से विचलित नहीं कर सकतीं। हम नागिला श्राविका की एक छोटी-सी, बड़ी प्यारी कहानी लें। कहते हैं भवदेव और भवदत्त दो भाई थे। बड़े भाई भवदत्त ने वैराग्यवासित होकर चारित्र-जीवन स्वीकार किया। एक बार भवदत्त भ्रमण करते हुए अपने भाई के घर भिक्षा के लिए पहुँचा। आहार देने के पश्चात् भवदेव उन्हें पहुँचाने के लिए उनके साथ चल पड़ा। उस समय की यह व्यवस्था थी कि गुरु महाराज को कुछ आगे तक पहुँचाने के लिए लोग जाते थे और गुरु के पास यदि कोई पात्र या झोली होती तो उसके साथ चलने वाला व्यक्ति उसे थाम लेता था। भवदेव ने सोचा कि थोड़ी देर चलने के बाद उनके अग्रज उन्हें घर जाने की अनुमति दे देंगे, पर भवदत्त ने कुछ नहीं कहा। चलते-चलते दोनों उस स्थान पर पहुँच गए जहाँ भवदत्त के गुरु और अन्य साधुजन विश्राम के लिए ठहरे हुए थे। भवदेव को भी जब उन्होंने भवदत्त के साथ देखा तो सभी साधु खुश हुए। गुरु ने कहा, 'भवदत्त ! तुम धन्य हो जो तुमने अपने भाई को भी प्रेरणा देकर वैराग्यवासित कर दिया। अब यह भी चारित्र-जीवन स्वीकार कर अपनी आत्मा का निस्तार करेगा।' भवदेव अभी भी हाथ में भवदत्त द्वारा दी गई झोली लिए खड़ा था। पहले के लोग बड़ों के सामने बोलते नहीं थे। भवदेव पशोपेश की स्थिति में पड़ गया कि एक तरफ उसकी विवाहिता नागिला है जिसने उसे जाते समय कहा था, स्वामी ! मैंने अभी स्नान किया है। मेरे बाल सूखें, उससे पहले आप आ जाना और दूसरी तरफ बड़े भाई की इज्जत ! ___ वह कुछ बोल न सका। गुरु महाराज ने उसी समय शुभ महूर्त देख भवदेव को दीक्षित कर दिया। वह बाहर सेतो दीक्षित हो गया, पर उसका मन तो अभी भी नागिला में ही अटका था। वह सोते-बैठते, खाते-पीते और यहाँ तक कि प्रतिक्रमण के पाठ बोलते समय भी नागिला की याद में खोया रहता। आखिर यह तो व्यक्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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