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जागे सो महावीर
कोई प्रतिष्ठाओं के व्यामोह में, कोई संघ निकलवाने में व्यस्त है और कोई तपउद्यापन में अपने नाम की चिंता में लगा है। इतने सारे व्यामोहों में ऐसा लगता है कि श्रमणत्वतो कहीं रँध गया है और कुछ नया स्वरूप ही संत का उभर कर सामने आया है।
प्रश्न है कि संत का वेश तो धारण कर लिया जाता है, किन्तु मन शांत और संत कहाँ हो पाता है? चित्त तो अभी भी कषायों से आविष्ट हो जाता है, चाहे कषाय की छोटी तरंग ही क्यों न हो। बाहर से व्यक्ति के लिए कितना सरल होता है श्रावक या संत बन जाना, पर अपने अन्तर को बदलना बहुत कठिन है। जब कोई व्यक्ति गृहस्थ होता है तो उसे लगता है कि संत-जीवन कितना कठिन है। मैं मानता हूँ कि श्रमणत्व स्वीकारना सरल कार्य नहीं; पर जो संत हो चुके हैं, वे इस बात को भलीभाँति जानते हैं कि संत होना उतना कठिन नहीं है, जितना कि अपने कषायों, विकारों और चित्त के उद्वेगों को जीतना मुश्किल है। जो व्यक्ति सामायिक नहीं करते, उनकी दृष्टि में सामायिक करना बहुत बड़ा कार्य हो सकता है, पर जो सामायिक करते हैं, वे जानते हैं कि सामायिक करना तो आसान है, पर क्रोध का वातावरण बन जाने पर भी समता रखना कठिन है।
जब व्यक्ति चार कदम आगे बढ़ाता है तो उसे आगे की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। जो अभी भी यहीं बैठे हैं, उनकी दृष्टि में ये चार कदम भी बहुत कठिन हो सकते हैं, पर जिन्होंने अपने कदम आगे बढ़ाए हैं, वे जानते हैं कि ये चार कदम तो मात्र कंकड़ और काँटों से ही भरे थे, पर अब आगे तो शायद विशाल चट्टानों का सामना भी करना पड़ सकता है। यही तो साधना का मार्ग है, मुक्ति की मंजिल का मार्ग है। ___'मन नरंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा।कोई पीतांबर हो जाता है, कोई श्वेताम्बर, तो कोई काली कम्बली वाला। सब बाहर ही बाहर से परिवर्तन हुए हैं। मन तो अभी भीगृहस्थ के मन की तरह संसार में उलझा है। व्यक्ति श्रमणत्वके आसमान पर पहुँच गया है और ख्वाब देखता है किसी पिंजरे में बंद तोते के; सोचता है कि अहो ! पिंजरे में बंद तोता कितना सुरक्षित है, दाने-पानी की कोई चिंता नहीं, उसे सब बात का आराम है और मुझे कितना परिश्रम, कितनी साधना करनी पड़ती है...यह है मिथ्या दृष्टि। जब तक व्यक्ति की दृष्टि मिथ्यात्व से ग्रसित होती है, तब तक उसे अच्छी बातें अच्छी लग ही नहीं सकतीं। उसे तो बुरी बातों में ही रस आता है।
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