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मिथ्यात्व - मुक्ति का मार्ग
और पूर्वाग्रह ही उसे उसकी मुक्ति से रोकते हैं, बाधक बनते हैं और भव-भ्रमण कराते हैं।
व्यक्ति पर मिथ्यात्व हावी होता है क्योंकि उसने मिथ्या धारणाएँ पाल रखी हैं। यदि आप मुझे बिना किसी पूर्वाग्रह या धारणा के हृदयपूर्वक सुनेंगे तो निश्चय ही हृदय का रूपान्तरण होगा और यदि आप अपनी पूर्व धारणाओं के साथ मात्र तर्क-वितर्क की दृष्टि से सुन रहे हैं तो आप यही सोचते रहेंगे कि इनकी बातों को कैसे काटा जाए ? तब आपके हाथ लगेगी, मात्र कतरन । आपके जीवन का रूपान्तरण नहीं हो पाएगा ।
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इसलिए आप जब कभी मुझे सुनने आएँ तो अपने मिथ्याग्रहों को, अपनी कुतर्की बुद्धि को वहीं छोड़ आएँ जहाँ आपने जूते उतारे हैं। आप मनोयोगपूर्वक सुनें और उस ज्ञान की किरण को अपने अन्तर की तहों तक, अन्तर के तमस् और अन्तर के कारागार तक पहुँचने दें ताकि अज्ञान का अंधियारा मिट जाए, और कोहरा छँट जाए। जिस व्यक्ति ने पूर्व में ही मिथ्याग्रह पाल रखे हैं, उसे धर्म की अच्छी बातें भी उसी प्रकार अरुचिकर लगेंगी जैसे बुखार से पीड़ित व्यक्ति को मिठाई लगती है ।
ऐसा व्यक्ति धर्म-स्थान के पास से गुजर जाएगा, पर अन्दर जाने से बचेगा । यदि किसी दबाववश वह प्रवचनस्थल पर पहुँच भी गया तो उसे लगेगा कि मैं यहाँ कहाँ फँस गया? इससे अच्छा तो किसी पिकनिक या पिक्चर में जाना होता । पिताजी ने कह दिया कि आज अमुक व्यक्ति की तरफ से पूजा है, इसलिए मन्दिर पहुँच जाना। बेटा पहुँच तो जाएगा, किन्तु वहाँ के भक्ति - गायन में भी किसी फिल्म की तलाश करेगा। सिनेमा हॉल में बैठा हुआ उसका भाई यह सोचे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मेरा भाई कितना सौभाग्यशाली है जो प्रभु भक्ति में तल्लीन होकर मिथ्यात्व की कारा को शिथिल कर रहा है और मैं हतभागी, मूढमति यहाँ पिक्चर देख रहा हूँ । मूल्य दृष्टि का ही तो है । गिद्ध उड़ता तो है आसमान में, पर उसकी दृष्टि किसी जीव के मांस के लोथड़े पर ही होती है । वह ऊँचाइयों पर जाकर भी किसी मरे बैल, सांड या अन्य पशु को ढूँढता रहता है।
यदि दृष्टि ही मिथ्या है तो व्यक्ति कितनी भी ऊँचाई पर पहुँच जाए, वह उस गिद्ध की भाँति बस मांस के लोथड़े को ही खोजता रहेगा। अब संत भी कहने भर को संत हैं। कोई लोकैषणा में फँसा है, कोई वित्तेषणा में; कोई नाम में उलझा है,
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