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________________ जागे सो महावीर सम्भव है, तुम्हारे सात पीढ़ी पहले के किसी दादा को किसी व्यक्ति से कुछ मिला होगा। सो उन्होंने उन्हें माना। आदर दिया। तुम्हें किन्हीं से कोई प्रेरणा मिले, कुछ ज्ञान मिले, चेतना मिले, तो तुम भी मानना। ___ गुरु के चरण तो गंगा-स्नान की तरह होते हैं। जैसे घाट पर बैठकर गंगा-जल से निर्मल हुआ जाता है, ऐसे ही मन की निर्मलता के लिए गुरु की गंगा में अवगाहन होता है। गुरु के चरण गंगा-घाट की तरह हैं। मूढ़ता चाहे लोकमूलक हो या गुरुमूलक, अंधानुसरण से बचना चाहिए। ___ तीसरी मूढ़ता है 'देवमूढ़ता' । इस मूढ़ता का शिकार व्यक्ति यही सोचता है कि जिन देवों को मैं पूजता हूँ, वे ही श्रेष्ठ हैं । देवत्व या दिव्यत्व के प्रति हमारा लगाव हो, न कि किसी नाम विशेष के प्रति । हम जुड़े किसी गुण विशेष से, न कि व्यक्ति या नाम विशेष से। अतीत में भी हम इन संकीर्णताओं से बंधे रहे हैं और आज भी हमारा भव-भ्रमण जारी है। हम देव से नहीं, दिव्यता से जुड़ें। अपने अन्तर्मन में दिव्यता का संचार करना चाहिए। परमात्मा की भगवत् दशा को हृदय में स्थापित करने से तन-मन की पाशविकता और उसका तमस् दूर होता है। उस गवाक्ष में बैठे सज्जन की अन्तर-पीड़ा और कसक का समाधान भगवान् अपनी ओर से अगले सूत्र में दे रहे हैं - मिच्छत्तं वेदंतो जीवो, विवरीय दसंणो होई। ण य धम्मं रोचेदि हु, महुरं पिरसं जहा जरिदो। भगवान कहते हैं -'जो जीव मिथ्यात्व से ग्रस्त होता है, उसकी दृष्टि विपरीत हो जाती है। उसे धर्म भी रुचिकर नहीं लगता, जैसे ज्वरग्रस्त मनुष्य को मीठा रस भी अच्छा नहीं लगता।' जब व्यक्ति के भीतर यह पीड़ा जगी कि क्या कारण है जिसके चलते मैं भयानक, घोर भव-वन में भ्रमण कर रहा हूँ, तब भगवान ने राह दिखाई कि मिथ्यात्व, अविद्या, अज्ञान और आसक्ति ही वह आधार है जिसके कारण व्यक्ति दीर्घकाल से भव-भ्रमण कर रहा है। इस मिथ्यात्व ने महावीर के जीव को भी भटकाया। मिथ्यात्व यानी असत्य। जैसा है, उसे वैसा न देखना मिथ्यात्व है। सच को सच न मानना और झूठ को झूठ न मानना । जो है, उसे नहीं मानना और जो नहीं है, उसे मानना। सत्य के प्रति असत्य-बुद्धि और असत्य के प्रति सत्य-बुद्धि, इसी का नाम मिथ्यात्व है। व्यक्ति की मिथ्या आसक्ति, दुराग्रह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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