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________________ मिथ्यात्व-मुक्ति का मार्ग जितनी आज की जाती है। जब महावीर स्वयं थे, तब उनके पीछे शिकारी कुत्ते छोड़े गए, उनके कानों में कीलें ठोंकी गई और उन पर भी गाली-पत्थरों की बरसात की गई। आज जब महावीर स्वयं नहीं हैं तो उनकी यशोगाथाएँ गाई जाती हैं, उनके चरण चन्दन से पूजे जाते हैं और उनके नाम पर लाखों-करोड़ों रुपये खर्च किए जाते हैं। ____ यह दुनिया भी अजीब है, जो जीते जी तो व्यक्ति के दुर्गुण देखती है और मरने के बाद गुण ही गुण। यदि दुर्गुणी में भी गुण देखोगे तो उसका जीते जी उपयोग कर जाओगे और यदि गुणी में भी दुर्गुण नजर आते रहेंगे तो उसके मरने के बाद भी उसकी तस्वीर पर धूप-दीप करने के सिवाय तुम्हारे पास कुछ नहीं बचेगा। जब वे थे, तब तो तुम मूढ़मति बने रहे और अब वे नहीं हैं तो तुम्हें उनके वियोग की पीड़ा सता रही है। यही व्यक्ति की लोकमूढ़ता है कि वह सत्य और असत्य का निर्णय किए बिना केवल जगत् का अनुकरण करता है। जिस प्रकार भेड़ें अपनी गर्दन झुकाकर चलती हैं, उनकी आँखें मार्ग को नहीं, बल्कि अपने आगे वाले साथी को देखती हैं, उसी प्रकार व्यक्ति भी अपनी विवेक रूपी आँखों को झुकाकर बंद कर लेता है और केवल लोकानुकरण करता है। दूसरी मूढ़ता है – गुरुमूढ़ता यानी 'मेरा गुरु सो सच्चा, बाकी सब झूठे।' अरे, गुरु कभी किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं होता, वह तो ज्ञान की अस्मिता है। वह व्यक्ति जो गुरु के योग्य गुण रखे, वही गुरु है। तुम्हारे गुरु तो तुम स्वयं ही हो। आजकल एक परंपरा और चल पड़ी है, वह है गुरु-आम्नाय की। कोई व्यक्ति कान में मंत्र फूंक देता है और स्वीकार हो गई उसकी गुरु- आम्नाय। लोग कहते हैं कि हमारे दादा ने भी इनकी गुरु-आम्नाय ली थी। अरे, तुम्हारे दादा को कुछ मिला होगा तो उन्होंने उसे गुरु माना। तुम्हें क्या मिला, यह तो सोचो। सब अपने-अपने गुरुओं से उसी प्रकार बंधे हैं जैसे कोई बैल ठाण से बंधा रहता है। __गुरु कोई व्यक्ति विशेष का नाम थोड़े ही है। यह तो एक क्रांति है, जो दो चेतनाओं के बीच घटित होती है। तुम गुरु उसे मानो, जिससे तुम्हारी आत्मा को कुछ उपलब्ध हुआ। तुम एक ही गुरु को सात पीढ़ी से मानने में लगे हो। जिस गुरु को तुमने देखा नहीं, तुम्हें उनसे कुछ मिला नहीं, पर तुम केवल इसलिए मान रहे हो कि उन्हें तुम्हारे पिता भी ऐसे पूजते रहे, तुम्हारे पिता इसलिए मजबूर थे क्योंकि उनके बारे में उनके पिता ने अपने बुजुर्गों से सुना होगा। यह सब भेड़-धसान हुई। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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