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जागे सो महावीर
गवाक्ष में बैठा हुआ वह सज्जन फिर-फिर इस गाथा को दोहराता जाता है - 'हा ! खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढमति भयानक तथा घोर भव-वन में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा ।'
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मूर्ख और मूढ़ में बड़ा फर्क है । मूर्ख वह है जिसे ज्ञान नहीं है या जो अज्ञानी है, जबकि मूढ़ वह है जिसे सत्य-असत्य का ज्ञान है, जो यह जानता है कि क्या हेय है, क्या उपादेय है, क्या आचरणीय है और क्या त्याज्य है, पर वह सब कुछ जानकर भी उसका आचरण नहीं कर पाता । युधिष्ठिर और दुर्योधन ने एक ही गुरु से शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की, पर एक धर्म के लिए जूझा तो दूसरा अधर्म और अन्याय के लिए लड़ा। महाभारत का एक बहुत ही प्यारा सूत्र दुर्योधन के संदर्भ में आता है। 'जानामि धर्मं न मे आचरति, जानामि अधर्मं न मे निवृत्ति: ।' दुर्योधन कहता है कि मैं जानता हूँ कि धर्म क्या है, पर उसका आचरण नहीं होता और मैं यह भी जाता हूँ कि अधर्म क्या है, पर उससे निवृत्त नहीं हो पाता ।' यही तो व्यक्ति की मूढ़ता है।
इस संसार में तीन प्रकार की मूढ़ताएँ चलती हैं। पहली है लोकमूढ़ता । इस मूढ़ता के चलते व्यक्ति वही सही मानता है, जो दुनिया करती है, अर्थात् सही या गलत जाने बिना दुनिया का अन्धानुकरण करना ही लोकमूढ़ता है । आज सारे ही कुएँ में भांग पड़ी है। एक ने पी और सबने उसका अनुकरण किया। अब सभी नशे में हैं। यही है व्यक्ति की लोकमूढ़ता, उसकी भेड़-धसान- प्रवृत्ति । एक भेड़ के पीछे सारी भेड़ें चलने लगती हैं। यदि एक भेड़ कुएँ में गिरी तो निश्चित रूप से शेष भेड़ें भी कुएँ में गिरेंगी।
'अन्धा अन्धो ठेलई, दोऊ कूप पड़ंत ।'
ले जाने वाले भी अंधे और जाने वाले भी अंधे, तो परिणाम यह होता है कि दोनों ही कुएँ में गिरते हैं । व्यक्ति यह जानने का प्रयत्न ही नहीं करता कि सत्य क्या है ? मैं जो कर रहा हूँ, वह सही है अथवा गलत ? वह तो बस लोकानुकरण करता रहेगा और दुहाई देगा कि अमुक शास्त्र में, अमुक किताब में ऐसा लिखा है या अमुक व्यक्ति ने ऐसा किया है । अरे, वे किताबें तो दो-पाँच हजार वर्ष पुरानी हैं। तू तो आज की अपनी किताब की रचना कर । लोगों की मौजूदा वस्तु या व्यक्ति के प्रति कम आस्था होती है, पर मृतक के प्रति अपार । आस्था के विषय में तो पूछिये ही मत । जब महावीर जीवित थे, तब उनकी उतनी पूजा नहीं की गई
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