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मिथ्यात्व - मुक्ति का मार्ग
यम नियम संयम आप कियो, पुनि त्याग विराग अथाग लियो । मन मौन रह्यो, तन पौन रह्यो, दृढ़ आसन पद्म लगाय दियो ।. वह साधन बार अनन्त कियो,
तदपि कछु हाथ हजु न पर्यो ।
ऐसा नहीं है कि हमें आज श्रमणत्व या श्रावकत्व का जीवन मिला है। अतीत में भी हजारों बार हमने इन नामों के बाने पहने हैं। श्रमणत्व ग्रहण किया, पर कषाय से आविष्ट होकर क्रोध किया और किसी चंडकौशिक की तरह सर्प बने । ऐसा नहीं कि हमने तप-त्याग, संयम आदि नियमों का पालन नहीं किया। हमने सैकड़ों बार त्याग किया, वैराग्य लिया, तपस्याएँ कीं, मौन रहे, दृढ़ आसन किए, पर आज भी हम खाली ही हैं। अन्तर्मन में एक ही सवाल उमड़ता है कि अब भी हम मुक्त क्यों न हो पाए ? बात में बहुत गहराई है। इस बात को वे ही समझ सकते हैं जो एकान्त में बैठकर इस बात का चिन्तन करते हैं कि मेरे वास्तविक बंधन और जंजीरें क्या हैं ? मुझे किससे मुक्त होना है और वह वास्तविक मार्ग क्या है जो मुझे अब तक नहीं मिल पाया। जो अपनी बदहाली से पीड़ित हैं वे ही इन शब्दों के मर्म को समझ सकते हैं। हाँ, हमने धर्म के नाम पर चलने वाली सभी क्रियाएँ तो कीं, मन्दिर गए, स्थानक गए, इसका मुकुट उतारा, उसको चढ़ाया, उसको गाली दी दूसरे का सम्मान किया । अनन्त जन्मों से हम उलट-पुलट, श्रम - परिश्रम ही तो कर रहे हैं।
कितने जनम मन-वचन- तन से
श्रम किया, पीड़ा सही ।
दुर्भाग्य किन्तु दूर हमसे मुक्ति की मंजिल रही ।
व्यक्ति के हृदय में पीड़ा और व्यथा तभी उठती है जब वह अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट न हो । व्यक्ति अपने मकान को तभी तो छोड़ना चाहेगा जब उसे पता चल पड़े कि मेरे मकान में आग लगी है। वही व्यक्ति ही मुक्ति के आकाश में छलांग लगा सकता है जिसको लगे कि जिस मकान में मैं रहता हूँ, उसमें आग गली है। आखिर हम सभी के भीतर विकार, वासना, मिथ्यात्व और मूर्च्छा की आग ही तो लगी हुई है। जो, जाग जाए, वही तो मुक्त हो सकता है।
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