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जागे सो महावीर
नहीं है कि हम आज उन दिव्य पुरुषों के सान्निध्य से महरूम हैं, वरन् हम अतीत में भी उसी प्रकार वंचित रहे हैं, जैसे कि ऋषभदेव के मण्डप में मरीची और महावीर के पास जमाली रहे थे।
गुजरात के एक बहुत श्रद्धेय साधक हुए हैं-भाई राजचन्द्र। उनका जन्म एक गुजराती परिवार में हुआ था, पर वास्तविक राजचन्द्र का जन्म तो उनके जीवन में घटित एक घटना से हुआ। भाई राजचंद्र जिस मोहल्ले में रहते थे, वहाँ उनके दूर के किसी संबंधी की मृत्यु हो गई। राजचन्द्र को पिता ने कहा, 'बेटा ! आज मुझे शव-यात्रा में जाना है, क्योंकि तुम्हारे काका चल बसे हैं।' पुत्र ने आश्चर्य से पूछा, 'बप्पा! यह चल बसना क्या होता है ?' पिता ने समझाया, 'बेटा ! वह व्यक्ति सदा-सदा के लिए इस धरती को छोड़कर चला गया है और अब उसकी पंचभूत की काया को अग्नि में समर्पित कर दिया जाएगा।' बेटे ने आश्चर्य से पूछा- 'क्या उसे जला दिया जाएगा?' पिता ने कहा – 'हाँ, बेटा ! यह तो सृष्टि का सनातन नियम है कि मृत व्यक्ति को जला दिया जाता है। मेरी मृत काया को तुम अग्नि लगा दोगे और जब तुम्हारी मृत्यु होगी तो तुम्हारी आने वाली पीढ़ियाँ तुम्हारी मृत काया को अग्नि में समर्पित कर देंगी।' पिता यह कहकर शव-यात्रा में चले गये । पुत्र राजचन्द्र भी उत्सुकता और कौतुहलवश उस शव-यात्रा के पीछेपीछे हो लिए। __शव-यात्रा श्मशान पहुँची। राजचन्द्रजो उस समय दस-बारह वर्ष के बालक ही थे, पिता न देख लें, इस डर से वे एक पेड़ पर चढ़कर बैठ गए। अंत्येष्टि-क्रिया प्रारंभ हुई। आग लगाई गई और उस जलती चिता को देखते-देखते भाई राजचन्द्र इतने गहरे खो गए कि उन्हें लगने लगा कि वहाँ अन्य किसी की नहीं, बल्कि स्वयं उनकी ही चिता जल रही है। वे सोचते हैं कि अहो ! यह काया आज ही नहीं, बल्कि पूर्व में भी अनन्त बार बनी और बिगड़ी है, जली और सड़ी है। पहले भी महावीर जैसे किसी महानुभाव का सत्संग मिला, उनकी देशना और सान्निध्य मिला, पर वह.मार्ग जो उन्होंने दिखाया, वह अन्तर-हृदय तक नहीं पहुंच पाया। अतीत में भी धर्म की खोज के लिए अनन्त साधन अपनाए गए,अनेक नियमों का, व्रतों का पालन किया गया, पर आज तक सुगति का मार्ग नहीं मिला। जब उनकी पीड़ा एक रचना में सिमट आई, जो शायद काव्य की दृष्टि से इतनी वजनदार न हो, पर उसमें छिपे भाव हृदय को छू जाने वाले हैं। वे कहते हैं -
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