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________________ मिथ्यात्व-मुक्ति का मार्ग हमारे जीवन में ऐसी हजारों घटनाएँ घटित होती हैं, हजारों ठोकरें लगती हैं, पर अन्तर-जागरूकता न होने से कोई ठोकर हमें झिंझोड़ नहीं पाती। बुद्धिमान व्यक्ति वह है जो दूसरों को ठोकर खाता देखकर सँभल जाया करता है। वह व्यक्ति भी कुछ हद तक समझदार है जो एक बार ठोकर खाने पर सँभल जाता है। पर वह व्यक्ति तो निरा मूढ़ या मूर्ख है जो बार-बार ठोकर खाता रहता है । हमारी असल जिंदगी में ऐसा होता है। एक बार क्रोध किया, कषायों से आविष्ट हुआ, और उसके दुष्परिणामों को देखा; उसने प्रेम किया, उसके सद्परिणामों को देखा, फिर भी व्यक्ति बार-बार उन कषायों में लिप्त हो जाता है। जैसे कि कोई खुजली का रोगी, खुजलाने पर होने वाली जलन व पीड़ा को समझता है, जानता है, फिर भी खुजली से प्रेरित होकर खुजलाने को विवश हो जाता है। हर ठोकर हमारे नए जन्म, हमारे नए भव का आधार बन जाया करती है। जैसे किसी राजमार्ग पर मुसाफिर आते हैं और चले जाते हैं, वैसे ही इस संसार के राजमार्ग पर भी पथिक आते हैं और गुजर जाते हैं। एक नया मुसाफिर तबही तो आता है जबकि कोई पुराना चला जाए। वृक्ष में नए पत्ते तब ही तो आते हैं जबकि पुराने पत्ते पीले पड़कर झड़ जाते हैं। पेड़ में हर बार नए पत्ते का आना, नए जन्म का आरंभ ही तो है और इसी प्रकार व्यक्ति हर बार अपनी माया, मूर्छा एवं मिथ्यात्व के कारण भवचक्र में प्रवृत्त हो जाता है। पर कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अलग होते हैं । वे इस पीड़ा से भरकर कह ही उठते हैं – 'हा ! मुझे खेद है। मैं मूढ़मति सुगति का मार्ग न जानने से ही इस भयानक भव-वन में भ्रमण करता रहा।' न केवल आज बल्कि अतीत में भी हमें सुगति का मार्ग नहीं मिला। ऐसा नहीं है कि अतीत में हमें मार्ग दिखाने वाला कोई नहीं था, वरन् हमने किसी रोहिणिय चोर की तरह कान में अंगुली डाल दी। आज ही नहीं, अतीत में भी पिता द्वारा पुत्र को दीक्षा के लिए मना किया जाता था। रोहिणिय के पिता द्वारा भी उससे वचन लिया गया कि वह किसी अमृत पुरुष के वचनों को नहीं सुनेगा। जब रोहिणिय के पैर किसी महावीर के सभामण्डपके पास से गुजरते हैं तो वह कान में अंगुली डाल देता है। ___जब सुगति का मार्ग बताया जा रहा था, तब हम किसी मिथ्यात्व में, मूर्छा में फँसे थे और जब आज भीतर में पीड़ा है तो मार्ग बताने वाला कोई नहीं है। वह प्रकाश-किरण आज उपलब्ध नहीं है जो हमारे पथ को आलोकित कर सके। ऐसा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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