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जागे सो महावीर
गर्व से अपनी बाजुओं पर थपकी लगाई, लेकिन वही अभिमान मेरी दुर्गति का आधार बना। मुझे मेरे उस अहंकार ने भयानक भवसागर में गोते लगवाए।
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'मैं' ही वह बीज है जिसमें अनन्त संभावनाएँ समाहित हैं । 'मैं' ही वह व्यक्ति है जो कि महापुरुष है, पर थोड़े से अहंकार ने मुझे नरक, देवगति, मनुष्यत्व और तिर्यंच गति में भटकाया, मुझे अपने देवत्व से दूर रखा । अहो ! मैं कभी नरक की वैतरणी में डूबा तो कभी सिंह बनकर जंगल में विचरा । मेरे जीवन में इतने उतारचढ़ाव आए । आखिर क्या कारण है मेरे जीवन के इन उतार-चढ़ावों का? आखिर वह कौन-सी बात है जो मेरी जन्म-जन्म की यात्रा का आधार बनी ?
यह चिन्तन करते-करते गवाक्ष में बैठे हुए उस सज्जन की झुकी हुई पलकों से दो आँसू गिर पड़े । ये आँसू किसी और के लिए नहीं, वरन् स्वयं अपने लिए थे। उन आँसुओं ने उस सज्जन को यह बोध कराया और यह अहसास कराया कि मैं एक महापुरुष होने का सामर्थ्य रखता था, पर मैं किस कारण से इस भयानक भव-वन में भ्रमण करता रहा ? तब उन्हीं आँसुओं से सनकर उस सज्जन महापुरुष के कुछ स्वर फूट पड़े। उनके शब्द थे -
हा ! जह मोहिय मइणा, सुग्गइ मग्गं अजाण माणेणं । भीमे भव - कंतारे, सुचिरं भमियं भयकरम्मि॥
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पीड़ा के क्षणों में उस सज्जन के मुँह से निकले हुए शब्दों के मर्म को वही व्यक्ति समझ सकता है जो अपनी मुक्ति के लिए कृतसंकल्प और पुरुषार्थशील है । उस सज्जन पुरुष ने आकाश की ओर निहारते हुए कहा, 'हा ! मुझे खेद है कि मैं मूढमति सुगति का मार्ग न जानने के कारण इस भयानक भव-वन में दीर्घकाल तक भ्रमण करता रहा । '
'मैं सुगति के मार्ग को नहीं जानता था' अर्थात् किन कारणों से सद्गति होती है और किन कारणों से दुर्गति - मैं इस तथ्य से अनजान था । जब कभी व्यक्ति के जीवन में इस प्रकार की वेदना होती है, तब वेदना के वे क्षण व्यक्ति के अभिनिष्क्रमण, प्रव्रज्या और दीक्षा के कारण बन जाया करते हैं । धन्य हैं वे व्यक्ति जिनके जीवन में ऐसे अद्भुत क्षण आते हैं और वे उन गरिमामय पलों को सार्थक कर जाते हैं । उन महान् क्षणों को व्यर्थ कर देना उसी प्रकार है जैसे समुद्र के किनारे पर आई हुई कोई लहर, किनारे से टकराकर मिट जाती है। स्वयं की गति के प्रति उमड़ी वेदना के वे क्षण ही व्यक्ति में अध्यात्म के बीज का अंकुरण करते हैं । तब व्यक्ति कह उठता है, 'हा ! मुझे खेद है ..... ।'
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