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व्रतों की वास्तविक समझ
___ १७९ राजचन्द्र ने गहराई से उस व्यक्ति के चेहरे को पढ़ा और उन्होंने अपने मुनीम को आदेश दिया कि वह कागज निकाला जाए जो कि सौदे का प्रमाण है। कागज निकाला गया और राजचन्द्र को सौंपा गया। राजचन्द्र ने सहजता से उस कागज को फाड़ते हुए कहा कि यही सौदा तुम्हारे तनाव, चिंता और परेशानी का कारण बन रहा है। इसी के कारण तुम्हें अपनी पत्नी के जेवर गिरवी रखने पड़े। मैं इस सौदे को ही समाप्त कर देता हूँ। मैं किसी की कमाई से दूध पी सकता है, पर खून नहीं।
कहा जाता है कि लाख रुपये मुनाफे के वे कागज श्रीमद् द्वारा पल भर में फाड़ दिए गये। हाँ, यही है अहिंसा, यही है सत्य और प्रामाणिकता कि जहाँ व्यक्ति अपने हित के साथ-साथ दूसरों के हितों की भी रक्षा करता है। ऐसे ही व्यक्ति सच्चे श्रावक और सच्चे श्रमण होते हैं। ____ भगवान तीसरे व्रत के सम्बन्ध में कहते हैं कि ग्राम, नगर या अरण्य में जो दूसरे की वस्तु को देखकर उसे ग्रहण करने के भाव को त्याग देता है, उसका अचौर्य व्रत होता है। भगवान ने केवल चोरी नहीं करने को ही अचौर्य नहीं कहा, बल्कि दूसरे की वस्तु को देखकर उसे मन में भी ग्रहण न करने के भाव को अचौर्यव्रत की संज्ञा दी। भगवान कहते हैं कि व्यक्ति किसी दूसरे की वस्तु पर बुरी नजर नडाले, चाहे वह अन्य की स्त्री हो, अन्य की सम्पत्ति हो या फिर जमीन-जायदाद। दूसरे की वस्तु को ग्रहण करने के भाव को भी भगवान ने चोरी कहा है।
आज दोनों समय प्रतिक्रमण करने वाला व्यक्ति भी कर-चोरी तो करता ही है। व्यक्ति धन-सम्पत्ति के पीछे इस कदर पागल हो गया है कि वह येन-केनप्रकारेण अधिक से अधिक धन कमाने को ही अपने जीवन का लक्ष्य समझता है। आज रिश्वत, बेईमानी, चोरी और कालाबाजारी देश को दीमक की तरह खोखला कर रहे हैं। अभी मेरे पास राजस्थान सरकार के मुख्य सचिव बैठे थे। जब चर्चाएँ चल निकलीं तो उन्होंने भी यह स्वीकार किया कि ऊपर से नीचे तक खानेखिलाने की ऐसी परम्पराएँ बन गई हैं कि कोई भी काम बिना खिलाए-पिलाए होता ही नहीं है। अरे ! खाने के लिए तो रोटी ही चाहिए न, हीरा तो खाओगे नहीं फिर यह व्यर्थ की चोरी, रिश्वतखोरी और कालाबाजारी क्यों?
आज परिस्थितियाँ बिलकुल बदल गई हैं। सभी राजनेता एक जैसे ही हैं। गाँधी, सरदार वल्लभ भाई और लालबहादुर शास्त्री का युग चला गया, जहाँ संसद
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