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जागे सो महावीर
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निकालकर पुरानी सूची से मिलान करके गिनती की जा रही थी, लेकिन एक वस्तु नहीं मिल रही थी । भण्डारगृह को अच्छी तरह देख लिया गया, पर वह वस्तु नहीं मिली। निवर्तमान अध्यक्ष कहने लगे कि जब मैंने अध्यक्ष पद का भार स्वीकार किया था, तब वह वस्तु खजाने में थी पर इस अवधि में मैंने कभी तिजोरी नहीं खोली। जब भी आवश्यकता पड़ी तो इसे मंत्री और कोषाध्यक्ष ने ही खोला है। यह सुनकर मंत्री और कोषाध्यक्ष नाराज हुए कि हम पर झूठा इल्जाम लगाया जा रहा है। अन्त में जब इस परिस्थिति का कोई समाधान नहीं निकला तो अध्यक्ष महोदय सबके बीच खड़े होकर बोले कि आप सभी लोग उस वस्तु के मूल्य का आकलन करके मुझे बताएँ ।
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आकलन किया गया। वस्तु का मूल्य साठ हजार रुपए आँका गया | आज से चालीस वर्ष पूर्व साठ हजार का क्या मूल्य हो सकता है, आप अनुमान लगा सकते हैं। उस व्यक्ति ने तत्काल कहा, 'मेरे कार्यकाल में यह वस्तु गुम हुई है, अतः मैं इसके लिए जवाबदेह हूँ । आज मेरा सामर्थ्य इतनी बड़ी रकम चुकाने का नहीं है, पर मैं आप सभी के समक्ष अपनी यह पगड़ी उतारकर मंदिर में रखता हूँ । यह पगड़ी मैं तभी धारण करूँगा जब मंदिर जी को साठ हजार रुपए समर्पित कर दूँगा । '
बुजुर्ग कहते हैं कि वह अपने बच्चों को भी यही बात कहते थे कि यदि मैं अपने जीवनकाल में मंदिर में रुपये जमा नहीं करवा पाऊँ तो तुम अवश्य ही जमा करा देना । कहते हैं कि उस व्यक्ति के बच्चों ने पूरे साठ हजार रुपए ब्याज - सहित मंदिर में जमा कराए। यह है सत्य के प्रति निष्ठा और जीवन में प्रामाणिकता ।
हम दूसरी घटना लें जो कि एक बहुत ही प्यारे साधक श्रीमद् रामचन्द्रजी के जीवन से सम्बन्धित है । वे गृहस्थ- संत थे । उनका बम्बई में जवाहरात का व्यवसाय था। एक बार उन्होंने किसी व्यक्ति के साथ पचास हजार रुपए का सौदा किया, पर योगानुयोग से उस वस्तु के दाम एक ही सप्ताह में बहुत ऊँचे चढ़ गए। जिस व्यक्ति ने सौदा किया था, वह अब उस सौदे को पूरा करने में असमर्थ हो गया । वह राजचन्द्र के पास पहुँचा और बोला कि यद्यपि सौदा पूरा करने का समय हो गया है, पर दाम इतने ऊँचे चढ़ गए हैं कि मैंने अपनी पत्नी के जेवर भी गिरवी रख दिए हैं तो भी मैं सौदा पूरा नहीं कर सकता । मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरी असमर्थता को समझते हुए मुझे कुछ समय दें |
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