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________________ व्रतों की वास्तविक समझ आपने यह तो सुना ही होगा कि सामायिक करना, प्रतिक्रमण करना या फिर मंदिर जाना धर्म है, पर मैं कहँगा कि यदि आप यतनापूर्वक गैस का बर्नर जलाते हैं तो वह भी धर्म ही है। ऐसे ही हम विवेक रखें कि पानी को छानकर काम में लें। ये छोटी-छोटी विवेकपूर्ण बातें आपको अहिंसक बना सकती हैं। अगर किसी कारणवश आपको रात को खाना या पानी पीना पड़ता है तो विवेक रखें कि बिजली की रोशनी में पानी या खाद्य वस्तु को अच्छी तरह देखकर ही उसे उपयोग में लें अन्यथा कोई जीव-जन्तु भी आपके पानी या खाने के साथ आ सकता है। ये कुछ ऐसे छोटे-छोटे सूत्र है जिन्हें अपनाकर हम सहजतया अहिंसक जीवन जी सकते हैं तथा क्रियाजन्य हिंसा से बच सकते हैं। भगवान की तरफ से दूसरा व्रत समर्पित किया जा रहा है 'सत्य' का। भगवान कहते हैं कि स्वयं अपने लिए या दूसरों के लिए क्रोध, भय आदि के वशीभूत होकर हिंसात्मक वचन बोलना ही असत्य वचन है। सत्य से बड़ा कोई व्रत ही नहीं होता। कोई भी शख्श यदि अपने जीवन में कोई व्रतस्वीकारना चाहे तो मैं कहूँगा कि वह सत्य को स्वीकारे। प्रारम्भ में हमें सत्य बोलने में कुछ दिक्कतें आ सकती हैं, पर अन्त में सत्य ही तुम्हारी रक्षा करेगा। जो सत्य की रक्षा करता है, गलत कृत्य हो जाने पर भी सत्य उसकी रक्षा करेगा। ___ व्यक्ति झूठ क्यों बोलता है ? झूठ बोलने के तीन ही कारण हैं - पहला क्रोध, दूसरा भय और तीसरा स्वार्थ। प्राचीन समय में एक धार्मिक व्यक्ति का जीवन और उसका वचन इतना प्रामाणिक होता था कि यदि वह अदालत में जाकर किसी की गवाही देता था तो न्यायाधीश भी उसे स्वीकार करते थे। उसे कोर्ट में गीता पर हाथ रखकर शपथ दिलवाने की जरूरत नहीं समझी जाती थी। पर आज स्थितियाँ बदल गई हैं। आज एक धार्मिक कहलाने वाला व्यक्ति धर्म का बाना पहनकर कितने गलत काम करता है, कितना असत्य और अप्रामाणिक जीवन जीता है, इससे हम सभी परिचित हैं। वस्तुतः जिस व्यक्ति की दृष्टि आत्म-तत्त्व पर स्थिर हो गई है, वह सदैव सत्य का ही आचरण करेगा। ___ मैं आपसे दो घटनाओं का जिक्र करूँगा। पहली घटना है कलकत्ता की जो मैंने भी बुजुर्गों से सुनी है। कलकत्ता के बड़े मंदिर के अध्यक्ष का कार्यकाल पूर्ण होने को था। परम्परा के अनुसार तीन वर्ष की अवधि पूरी होने पर अध्यक्ष को मंदिर के खजाने के सामान का प्रभार नए अध्यक्ष को सौंपना था। सभी सामान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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