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________________ १७४ जागे सो महावीर अगले दिन सुबह राज्य के बन्द दरवाजे खुल गये और मृगावती अपने परिवार सहित भगवान की मंगल देशना सुनने पहुँची। इधर राजा चन्द्रप्रद्योत भी प्रभु के दर्शन करने और उनकी अमृतवाणी के श्रवण के लिये पहुँचा। भगवान ने कहा, 'इस अनित्य संसार में अनित्य शरीर के लिए युद्ध कैसा? दोनों लोगों के बीच युद्ध होने से कितने बेकसूरों की जान जाएगी, कितनी बहिनों की राखी बिखर जाएगी, कितनी माताओं की गोद सूनी हो जाएगी और कितनी महिलाओं की मांग के सिन्दूर से होली खेली जाएगी। तुम इस नश्वर संसार में शांति और अहिंसा का महत्त्व समझो। अपना अमूल्य जीवन इन युद्धों से व्यर्थ न करो। __ भगवान की देशना सुनकर मृगावती उसी समय उठकर बोली, 'भंते ! आपके वचनों को सुनकर मुझे इस नश्वर संसार से तीव्र वैराग्य हो गया है और अब मैं दीक्षित होकर साध्वी-जीवन व्यतीत करना चाहती हूँ। इसलिए मुझ पर अनुकम्पा कर श्रमणत्व प्रदान करें।' जिन क्षणों में मृगावती ने श्रमणत्व को अंगीकार किया, उन्हीं क्षणों में राजा चन्द्रप्रद्योत उठे और बोले, 'भंते ! मृगावती के इस श्रमणजीवन के अंगीकरण का मैं अनुमोदन करता हूँ और में स्वयं भी कुछ नियम और व्रत आपसे ग्रहण करना चाहता हूँ। तब महावीर द्वारा चन्द्रप्रद्योत को पाँच व्रत दिए गए। वे ही व्रत श्रमण और श्रावक जीवन के आधार-स्तंभ बने। ___ भगवान की सारी जीवन-दृष्टि इन्हीं पाँच व्रतों पर टिकी हैं। इन्हीं पाँच व्रतों को ही भगवान ने मुक्ति का आधार माना है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के रूप में हम इन पंच महाव्रतों से वाकिफ हैं। ये महाव्रत कल भी सार्थक थे और आज भी समीचीन हैं। जो व्यक्ति इन पाँचव्रतों का प्रतिदिन पालन करता है, वह महावीर द्वारा समर्पित पंचामृत का आचमन कर रहा है। हम महावीर द्वारा प्रतिपादित इन पाँच व्रतों पर कुछ जीवन-सापेक्ष ज्ञान-चर्चा करें। व्रत का अर्थ होता है 'विरत होना या अलग होना' ।रत का अर्थ है 'जुड़ना या मिलना' और विरत का अर्थ है 'दूर होना या अलग होना' । महावीर इन पाँच व्रतों के माध्यम से हमें पाँच साधनों से अलग या मुक्त रखना चाहते हैं। जैसे कमल की पांखुरियाँ कीचड़ से अलग रहती हैं, ऐसे ही महावीर हमें हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और व्यर्थ के संग्रह के कीचड़ से मुक्त रखना चाहते हैं। हम लें, महावीर के प्रथम व्रत के संबंध में महावीर का सूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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