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________________ श्रावक-जीवन का स्वरूप १६९ हमने पूछा, 'यह क्या हो गया?' वे बड़े शांत स्वर में बोले, 'कुछ नहीं, ऐसे ही चोट लग गयी थी।' हमने कहा, 'तब आपने पधारने का कष्ट क्यों किया?' उन्होंने जवाब दिया, 'इस खून या चोट से अधिक मूल्यवान मेरे लिए आपके आदेश की पालना है। ऐसा कभी हो सकता है कि आप बुलाएँ और मैं न आऊँ !' तब हमने जाना कि सामायिक किसे कहते हैं ? जिस व्यक्ति के सिर पर इतनी गहरी चोट लगी है कि बाद में उसके छह-छह टाँके आए तो भी वह व्यक्ति इतनी समता, शांति और सहजता से हमारे साथ एक-डेढ़ घंटे शास्त्र-चर्चा करता रहा। रात के साढ़े दस बजे के लगभग हमने उनके प्राथमिक उपचार की व्यवस्था की। ___ हुआ यह कि वे शेविंग कर जब स्नानघर में नहाने गए तो नहाकर जैसे ही ऊपर उठे कि सिर पर लगा हुआ नल, सीधा उनके सिर के भीतर घुस गया । उन्होंने टाँके लगवाने की चिंता नहीं की और सीधे हमारे पास शास्त्रचर्चा के लिए आ गए। उनको मधुमेह की बीमारी थी। वे जब हमारे साथ शास्त्र-अध्ययन और अध्यापन के लिए बैठते तो उनके लिए एक गिलास करेले का रस लाया जाता। वे उस रस को बड़े आराम से पी लेते, गिलास रखते और फिर अध्ययन प्रारंभ। मुँह साफ करने के लिए किसी अन्य चीज की आवश्यकता नहीं, न ही कोई नाक-भौं सिकोड़ी जाती। इतनी सहजता और समता, करेले के रसके प्रति रही। मैं हकीकत कहता हूँ कि हमने अपने जीवन में सामायिक की साधना जिनसे सीखी है, उनमें सागरमलजी भी एक हैं। जिस व्यक्ति की मति सम्यक्दर्शन से विशुद्ध हो गई है, वह व्यक्ति सप्त व्यसनों का त्याग करने से दार्शनिक श्रावक कहा जाता है। किसी का फिलोसॉफर होना एक अलग पहलू है। वह उसके चिन्तन की परिपक्वता है पर दार्शनिक का श्रावक होना दर्पण होने की तरह है। जैसा दर्पण साफ-सुथरा होता है, ऐसे ही वह व्यक्ति भी भीतर-बाहर साफ-सुथरा होता है। व्यक्ति का जीवन किसी आईने की तरह हो जाए। आईने में किसी ने झाँका तो आईने ने उसे उसका प्रतिरूप दिखा दिया। देखने वाला हटा कि आईना फिर साफ-स्वच्छ। आईने में सौ लोग अपनी छवि देख लें, फिर भी आईना बेदाग रहता है, साफ-स्वच्छ रहता है। कैमरा तो कैच कर लेता है छवि को, पर आईना सबको देखकर भी, सबसे मिलकर भी, सबसे बतिया कर भी निर्मल-निर्लिप्त-मुक्त रहता है। मैं कहूँगा कि हम आईना बनें-सबके साथ सबके बीच, फिर भी निर्लिप्त। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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