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श्रावक-जीवन का स्वरूप
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कल्पना करें कि लन्दन में विश्व-स्तर का एक महा अधिवेशन चल रहा हो जिसमें विश्व की सभी सम्माननीय हस्तियों को आमंत्रित किया गया है। वहाँ एक व्यक्ति मात्र छोटी-सी धोती पहने, कंधे पर एक दुपट्टा लिये और हाथ में एक डण्डा लिये पहुँचता है। क्या यह अपरिग्रह का जीवन्त उदाहरण नहीं है ? वहाँ पहुँचने पर उस व्यक्ति को कहा जाता है कि आपको इस तरह के वस्त्र पहनकर महाधिवेशन का अपमान करने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप या तो सलीके के वस्त्र पहनकर आएँ अथवा इस महाधिवेशन से लौट जाएँ।
वह व्यक्ति कहता है, 'मैं इस महाधिवेशन का त्याग कर सकता हूँ, पर अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं कर सकता। ऐसा कहकर वह जैसे ही लौटने के लिए पीछे मुड़ता है, तभी महारानी एलिजाबेथ उठकर खड़ी हो जाती हैं और कहती हैं, 'महात्मा गाँधी, इस महाधिवेशन में आपका वही स्थान है जो कोहिनूर हीरे से सज्जित एलिजाबेथ का है।' तब उस महाधिवेशन की अध्यक्षता महात्मा गाँधी द्वारा की जाती है। एलिजाबेथ ने सिद्ध किया कि महिमा त्याग की होती है, भोग की नहीं। त्याग के आगे भोग बौना हो जाता है।
ऐसे व्यक्ति ही गृहस्थ-संत होते हैं। अपरिग्रह के संदर्भ में ही हम एक और उदाहरणलें।मंदसौर के एक श्रावक हैं श्रीअमरचंद कोठारी जो वर्तमान में कलकत्ता में रहते हैं। इस व्यक्ति ने आज से कोई पचास-पचपन वर्ष पूर्व किसी संत की प्रेरणा से परिग्रह-परिमाण-व्रत ले लिया। उस समय उनकी कमाई थी १० या २० रुपये मासिक और इन्होंने यह परिमाण ले लिया कि वे दस हजार रुपये से अधिक धन अपने पास नहीं रखेंगे। उस समय तो दस हजार रुपये का बहुत महत्त्व होता था, हालाँकि आज तो एक लड़के के ही बैंक बैलेंस में बीस-पच्चीस हजार रुपये आसानी से मिल जाएँगे।
मुद्दे की बात यह है कि वह व्यक्ति आज भी जब प्रतिदिन हजारों-लाखों के धंधे करता है, पर अपने लिये हुए नियम पर अडिग है। दस हजार से जितना भी ज्यादा होता है, वह उसका दान कर देता है। प्रतिदिन का उसका यही नियम है। वह अपना हिस्सा मिलाता है और दस हजार से जितना भी ज्यादा होता है, उसे एक अलग गुल्लक में डाल देता है। कोई भी आता है तो वह उसे दान कर देता है, इस भाव से नहीं कि सामने वाले को चाहिए या आवश्यकता है, बल्कि इसलिए कि यह अतिरिक्त पैसा उसे हटाना है। वह व्यक्ति प्रतिदिन हजारों-लाखों रुपयों
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