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________________ १६६ जागे सो महावीर वह एक महीने तक उस पौधे की देखभाल करता है, उसमें पानी डालता है, खाद देता है और धूप की समुचित व्यवस्था करता है, तब कहीं जाकर उसे एक फूल प्राप्त होता है। यदि वह एक फूल परमात्मा को भाव से समर्पित किया जाता है तो बाजार से खरीदे गए सवा लाख फूल भी उस एक फूल की बराबरी नहीं कर सकते। करोड़ों के मंदिर धरे रह जाते हैं, जब किसी गरीब द्वारा एक झोंपड़ी को मंदिर के रूप में खड़ा किया जाता है। ____ यह तो वह देश है जहाँ यदि कोई पत्थर भी भाव से खड़ा कर दिया जाए तो वह किसी भैरूजी, भोमियाजी और भोपाजी के नाम से पूजा जाता है । महत्त्व है भावों का। प्रतिष्ठा मंत्रों और श्लोकों से नहीं हो सकती, वह तो भावों से होती है। श्रद्धा भरे हाथ किसी भी तत्त्व में प्राण-प्रतिष्ठा करने में समर्थ और सक्षम होते हैं। भगवान ने इसीलिए कहा कि श्रावक के एक हाथ में पूजा हो और दूसरे हाथ में दान। तुम प्रतिदिन पूजा करो और चाहे दस रुपये ही सही, मानवता की मदद के लिए अवश्य समर्पित करो। इसी संदर्भ में भगवान अगला सूत्र दे रहे हैं - सन्ति एगेहिं भिक्खूहिं, गारत्था संजमुत्तरा। गारत्थेहिं य सव्वेहिं, साहवो संजमुत्तरा॥ भगवान कहते हैं, 'साधुजन सभी गृहस्थों से संयम में श्रेष्ठ होते हैं, तथापि कुछ भिक्षुओं की अपेक्षा गृहस्थ संयम में श्रेष्ठ होते हैं।' प्रभु बड़ी क्रांतिकारी बात कह रहे हैं। यह तो कोई आश्चर्यकारक बात नहीं है कि साधुजन संयम में सभी गृहस्थों से श्रेष्ठ होते हैं। चाहे साधु में कोई दोष आ जाए तो भी वह श्रेष्ठ है, क्योंकि उसने गृहस्थ-जीवन का त्याग किया है, वह ब्रह्मचारी जीवन जी रहा है और अन्य कितने ही नियमों का पालन भी कर रहा है। भगवान यह भी कहते हैं कि कुछ गृहस्थ ऐसे भी होते हैं जो संयम में मुनियों से भी श्रेष्ठ होते हैं। कोई मापदंड थोड़े ही होता है गृहस्थ और साधु के संयम-जीवन को मापने का। एक श्रावक भी अपनी भावदशा में साधना के उन्नत सोपानों को छू सकता है और एक साधु अपनी ही भावदशा में विकारों के दलदल में गिर सकता है। मैंने धर्म की किताबों में पढ़ा है, हालाँकि जाना या देखा नहीं है कि पंचम आरे में कई साधु-साध्वी और आचार्य नरक में जाएँगे। पर मैं तो यह कहना चाहूँगा कि गृहस्थ भी चढ़ सकता है और साधु भी गिर सकता है। मूल्य है भावों और कृत्यों का। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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