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________________ श्रावक-जीवन का स्वरूप १६५ - प्रतिमा की प्रतिष्ठा और महामस्तकाभिषेक का अवसर था ! कहा जाता है कि समारोह चल रहा था, लोगों द्वारा हजारों सैकड़ों कलश दूध भगवान बाहुबलि के मस्तक पर डाला जा रहा था, लेकिन मस्तकाभिषेक उस समय तक पूर्ण नहीं माना जाता, जब तक कि सिर से डाली गई दूध या पंचामृत की धारा भगवान के पाँवों तक पहुँचकर उनके चरणों के अंगूठे को स्पर्श न करे। मस्तकाभिषेक पूर्ण नहीं तो प्रतिष्ठा भी अपूर्ण ही मानी जाएगी। इतना दूध डालने पर भी वह भगवान के घुटनों से नीचे पहुँची ही नहीं। सब आचार्य जुट गए। पुण्यशाली राजा चामुण्डराय ने भी बहुत प्रयत्न किया। सभी नागरिकों ने भी मंच पर चढ़कर कलश, दूध के कलशे मस्तक पर अर्पित किए, पर दूध पाँवों तक नहीं पहुँच पाया। दूध इधर-उधर ही छिटक जाता। तब आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठा के अपूर्ण रहने की घोषणा कर दी गई। तभी वहाँ अस्सी वर्ष की वृद्ध महिला आई जिसकी कमर भी झुक गई थी। वह बोली, 'मैं बहुत दूर से प्रभु का मस्तकाभिषेक करने के लिए आई हूँ। कृपया मुझे भी एक अवसर दिया जाए।' उस महिला का नाम था अज्जिका गुलि। 'अज्जिका' एक प्राकृत शब्द है जिसका अर्थ होता है आर्यिका। दिगंबर समाज में वर्तमान में भी महिला संत के आगे आर्यिका शब्द का प्रयोग किया जाता है। लोगों ने उस गुलि को इतना सम्मान दिया कि उस सन्नारी के नाम के पूर्व में अज्जिका शब्द जोड़कर उसे एक साध्वी या आर्यिका की उपमा दी गई। उसके प्रार्थनामय भावों को देखकर राजा ने उसे आज्ञा दे दी। वह बूढ़ी किसी तरह मंच पर चढ़ी और अपने हाथों में लिये हुए एक दोने में अपने आँचल का दूध, भगवान के मस्तक पर समर्पित कर दिया। वहाँ पर उपस्थित आचार्य, राजा और समस्त जनसमुदाय यह देखकर आश्चर्यचकित हो गया कि जो मस्तकाभिषेक लाखों कलश दूध से सम्पन्न न हो पाया, वह उस बूढ़ी महिला के एकमात्र एक दोने दूध से हो गया। भगवान के चरणों से दूध की धारा बह निकली। पूरा गाँव और वह संपूर्ण पर्वत, जिससे पत्थर काटकर प्रतिमा बनाई गई थी, दूधिया हो गए, दूध से लबालब भर गए। .. आज भी वहाँ पहाड़ ऐसा दूधिया है जैसे वह किसी संगमरमर का हो, जबकि उसके आसपास के सभी पहाड़ काले हैं। महत्त्व है समग्रता का। मूल्य इस बात का नहीं है कि कितना चढ़ाया गया, बल्कि मूल्यवान यह है कि किन भावों के साथ चढ़ाया गया। किस समग्रता से चढ़ाया गया। एक व्यक्ति पूजा के लिए फूल, बाजार से खरीदता है। दूसरा व्यक्ति वही फूल अपने गमले में उगाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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