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श्रावक-जीवन का स्वरूप
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संभव है कि वह झूठ बोलकर आपको ठगना चाहता हो, लेकिन वह ठगकर भी साठ-सत्तर रुपये ही तो ले जाएगा। हम भी तो किसी को कभी-न-कभी ठगते ही हैं। लेकिन यदि वह सच्चा व्यक्ति हुआ तो हमारा उसके प्रति यह दृष्टिकोण कितना नाइंसाफी भरा होगा। वह व्यक्ति भी मन में सोचेगा कि पीड़ित को देखकर भी जिसके मन में पीड़ा, दया और करुणा नहीं उपजती, वह इन्सान नहीं, कोई दानव ही होगा। न केवल हम दूसरों को सहायता दें, बल्कि उसे अपनी ओर से धन्यवाद भी ज्ञापित करें कि तू आज मेरे पास आया और तूने मुझे देने का सुकून दिया।
— मैं, सुबह उठकर रोज यह प्रार्थना करता हूँ कि हे प्रभु ! तू मेरे पास ऐसे पचास-सौ आदमी रोज भेज जिन्हें मैं अपनी सेवाएं दे सकूँ, जिन्हें मैं कुछ मदद कर सकूँ और किसी की उदरपूर्ति का मैं पुण्य निमित्त बन सकूँ। - यह हमारी पुण्यवानी है कि हम दान कर अपने पुण्य को बढ़ा रहे हैं। यदि दान नहीं किया गया तो पुण्य के गुल्लक की स्थिति उस गुल्लक की तरह हो जाएगी जिसमें से केवल निकाला जाता है, पर डाला कुछ नहीं जाता। आभार मानें उस व्यक्ति का जिसने हमें अवसर दिया कुछ देने का। हम उसे धन्यवाद दें कि मित्र ! तुमने मुझसे भोजन स्वीकार किया, वरना यह भोजन तो मेरे पेट में जाकर मल ही होने वाला था। तुमने मुझे समर्थता का अहसास दिया, मुझे देने का आनन्द दिया, मुझे अपने पदार्थ का सदुपयोग करने का अवसर दिया।
ध्यान रखें, मनुष्यत्व इसी में है कि जो भी दो-चार रूखी-सूखी या चिकनीचुपड़ी रोटियाँ नसीब हुई हैं, उनको मिल-बाँटकर खाएँ। वह व्यक्ति तो पशु या दानव है जो स्वयं का पेट ही भरना जानता है। दूसरों को देकर खाना, यह जीवन की दिव्यता है, और खुद ही खुद खाना कृपणता है, ओछापन है। हमारा हर संभव प्रयत्न हो कि हमारे द्वार पर आया हुआ कोई व्यक्ति कभी खाली हाथ न जाए। इसीलिए भगवान ने कहा है कि श्रावक के दो हाथ हैं, एक पूजा के लिए और दूसरा दान के लिए।
वह श्रावक धन्य होता है जो सुबह उठकर परमात्मा की प्रार्थना करता है और रात में सोने से पहले स्वाध्याय करता है। सुबह की गई प्रार्थना व्यक्ति को परमात्मा की स्मृति की एक ऐसी तरंग से भर देती है जो उसके दैनन्दिनीय कार्यों को सही दिशा में गति और ऊर्जा प्रदान करती है। सोने से पहले स्वाध्याय करने पर चित्त निर्मल होता है, विकार मिटते हैं और स्वभाव में सौम्यता आती है। उस व्यक्ति
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