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________________ १६२ जागे सो महावीर जीवन का दान मांगने पर भी इन्द्र को दुत्कार या मनाही नहीं मिली। इस तरह मनुष्य को देवताओं से भी ज्यादा ऊँचा दर्जा और गौरव प्रदान किया गया। ऐसा नहीं है कि देने वाले देवता ही हैं और मनुष्य दान नहीं कर सकता। कभी-कभी देवता को भी मनुष्य के द्वार पर आना पड़ता है। कोई देवता, किसी दधीचि के द्वार पर उसकी अस्थियाँ माँगने पहुँच जाता है और दधीचि द्वारा अपनी अस्थियाँ दान कर दी जाती हैं। उससे वज्र का निर्माण होता है और उस वज्र के सहारे ही दानवों का संहार किया जाता है। इसीलिए भगवान ने कहा कि श्रावक तो देता रहे क्योंकि देने से ही वह धन्य होगा। जब चन्दनबाला जैसी सन्नारी को अपमानित और कलंकित कर किसी तलघर या कोठार में बंद किया जाता है और उसे तीन दिन बाद खाने को उड़द के बाकुले मिलते हैं तब भी उसकी यह भावना रहती है कि मैं किसी अतिथि को इसमें से कुछ अर्पित करूँ और उसके बाद ही मैं उन्हें ग्रहण करूँ, तभी मेरा भोजन सार्थक होगा। ऐसे समय में महावीर आते हैं, उससे आहार ग्रहण करते हैं और चन्दनबाला धन्य हो जाती है। अगर आपके पास धन है तो धन दें, भोजन है तो भोजन दें और यदि वस्त्र हैं तो वस्त्र दें। एक कटोरा खीर का दान भी किसी के लिए धन्ना और शालिभद्र बनने का निमित्त बन सकता है। ___ यह न सोचें कि मैं जिसे रोटियाँ दे रहा हूँ, वह बाजार में जाकर उन्हें बेच सकता है। अगर यह सोचेंगे तो आप दान कभी नहीं कर पाएंगे। अगर आप ऐसा सोचते हैं तो फिर यह विचार भी तो करें कि मैं जोरोटियाँ खा रहा हूँ, वे भी तो मल में परिणित हो जाएँगी। हर कार्य का शुभ या अशुभ परिणाम तो होना ही है। लेने वाले की पात्रता-अपात्रता वह स्वयं जाने। हमारे दानसे हम पुण्य पारमिताओं को छू रहे हैं। कोई व्यक्ति आ जाए और कहे कि हमारे गाँव में मंदिर बन रहा है तो दान देने के नाम पर यह कह कर रास्ते न निकालें कि पिताजी घर पर नहीं हैं या बेटा घर पर नहीं है। आप कहें कि मैं अपने सामर्थ्य के अनुसार अभी इतना ही दे रहा हूँ। आप अभी इसे स्वीकारें। पिताजी या बेटे के आने पर और अधिक जितनी गुंजाइश होगी, मैं देने का प्रयत्न करूँगा। नि:स्वार्थ भाव से दान करो, अपना नाम रखने के लिए ही दान मत करो। यदि कोई व्यक्ति आपके पास आता है और कहता है कि सामान कहीं छूट गया है। वह आपसे अपने घर वापस जाने का किराया माँगता है तो उसे दे दें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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