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________________ श्रावक - जीवन का स्वरूप १६१ सिद्धांत हैं। वे तो तीर्थंकरों की अनन्त श्रृंखला में प्रत्येक तीर्थंकर द्वारा स्थापित, अनुमोदित और प्रत्येक श्रावक-श्राविका के कल्याण के लिए अनुभूत सिद्धांत हैं । अणुव्रत के अलावा श्रावक जीवन में ऐसे कौन से कार्य हैं, जिन्हें हम श्रावक-धर्म की बुनियाद कह सकें? भगवान ने कहा, 'श्रावक - जीवन के लिए दान और पूजा मुख्य हैं। जैसे कोई पंछी अपनी दोनों पाँखों के सहारे आकाश में उड़ता है; जैसे कोई व्यक्ति दोनों पाँवों के सहारे ही चल पाता है और जैसे कोई व्यक्ति दोनों हाथों के सहारे ही कार्य को निपुणता से संपादित करता है, वैसे ही श्रावक - जीवन के लिए दान और पूजा का महत्त्व है। भगवान ने जहाँ श्रावक की दोनों हथेलियों में से एक हथेली पर दान और दूसरी हथेली पर पूजा के अधिकार को समर्पित किया है; वहीं श्रमण की दोनों हथेलियों पर ध्यान और अध्ययन के दीप थमाए हैं । जो श्रावक अपनी एक हथेली पर दान का दीप रखता है और दूसरी हथेली पर पूजा के पुष्प रखता है, उसका जीवन कभी अंधकार में नहीं भटक सकता और न ही उसका जीवन कभी दुर्गुणों की दुर्गन्ध से दुर्वासित हो सकता है । भगवान ने कहा कि श्रावक दान करे और दूसरों का सहयोग करे । व्यक्ति केवल यही न सोचे कि दूसरों को मेरे द्वारा पीड़ा नहीं पहुँचाना ही अहिंसा - अणुव्रत का पालन है, बल्कि उसकी मनोवृत्ति यह हो कि मैं दूसरों को हर संभव मदद दूँ । उसी व्यक्ति का भोजन करना सार्थक होता है जो स्वयं भोजन करने से पहले किसी अतिथि को भोजन कराता है। श्रावक तो देने मात्र से ही धन्य होता है । उसमें पात्र और अपात्र का विचार ही क्या ? जिसको हम दान दे रहे हैं, वह उसका सही उपयोग करेगा या नहीं, यदि हम ऐसा सोचेंगे तो फिर हम शायद ही दान कर पाएँ । यदि तुम देते हो और पाने वाला उसका सही उपयोग नहीं करता है तो इसमें उसी की अपात्रता है, पर यदि तुम किसी को दान देने में योग्य और अयोग्य का विचार करके मना कर देते हो तो यह तुम्हारी अपात्रता है। महान् पुरुष दान देने से पहले सोचते नहीं है । कर्ण, जिसकी दहलीज पर स्वयं इन्द्र कवच और कुण्डल माँगने आया था, यदि वह यह सोचता कि कवच और कुण्डल का दान मेरे मरण का निमित्त या कारण बन जाएगा तो वह दान नहीं कर पाता। उसने तो सोचा कि आने वाली सदियाँ, युग और इतिहास क्या याद रखेंगे कि देवताओं के महाराज इंद्र को भी एक मनुष्य के द्वार पर जाना पड़ा; Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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