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________________ १६० जागे सो महावीर वर्ष तो धर्म नहीं करते, पर भादवा और सावन आते ही उन पर धर्म का जुनून सवार हो जाता है। जैसे कोई किसान इन महीनों में अपने खेत में बीज बोने, उसकी सिंचाई और निराई करने में लग जाता है, वैसे ही भदैय्या श्रावक भाद्रपद और सावनमास में ही मंदिर जाते हैं, प्रवचन सुनते हैं और पर्दूषण में तपस्या आदि करते हैं। तीसरे होते हैं- मरैय्याजो किसी मंदिर या किसी धर्मस्थल पर मंगलपाठ सुनने तभी जाते हैं जब कोई मर जाता है। ऐसे लोग किसी के मरने पर सोचते हैं कि सचमुच आत्मा-परमात्मा, पुण्य-पाप और स्वर्ग-नरक हैं। इसलिए वे मृत की आत्मा की शांति के लिए मंदिर चले जाते हैं। चौथे होते हैं सदैय्या जिनके लिए किसी का जन्म और मरण, कोई अष्टमी या चतुर्दशी कोई सावन या भादो महत्त्व नहीं रखते। उनका तो हर दिन-हर रात, पल-प्रतिपल धर्म के लिए समर्पित होता है। वे देव, गुरु और धर्म के प्रति हर क्षण आस्थाशील होकर साधना-मार्ग में अनवरत बढ़ते रहते हैं। वे ही नैष्ठिक श्रावक होते हैं और श्रावक कहलाने के सच्चे अधिकारी भी। ऐसे श्रावक ही आगे चलकर श्रमण होते हैं। यदि कोई श्रमण विशुद्ध रूप से श्रमणत्व का पालन नहीं करता तो इसका कारण यह है कि उसने अपने जीवन में शुद्ध श्रावक-जीवन नहीं जिया। सच्चे श्रमण के लिए सच्चा श्रावक होना पहली शर्त है। जो व्यक्ति सच्चा श्रावक नहीं बन पाया, वह सच्चा श्रमण भी कभी नहीं बन सकता। विशुद्ध रूप से श्रावक जीवन को जीने वाला व्यक्ति यदि श्रमणत्व को अंगीकार कर ले तो वह उसका शुद्ध पालन कर पाएगा तथा श्रमण-जीवन की गरिमा को भी बनाए रखेगा। तब श्रमणत्व का फूल उसके जीवन में मुक्ति की सुवास लेकर आएगा। भगवान ऐसे श्रावक-जीवन को ही अपनी ओर से प्ररूपित करते हुए कुछ मूल्यवान् सूत्र समर्पित कर रहे हैं। पहला सूत्र है - दाणं पूया मुक्खं, सावयधम्मे ण सावया तेण विणा। झाणाज्झयणं मुक्खं, जइधम्मे तं विणा तहा सो वि॥ भगवान कहते हैं : 'श्रावक-धर्म में दान और पूजा मुख्य हैं जिनके बिना श्रावक नहीं होता तथा श्रमण-धर्म में ध्यान और अध्ययन मुख्य हैं, जिनके बिना श्रमण नहीं हो सकता। भगवान ने श्रावकों के लिए पाँच अणव्रतों का विधान किया है । अणुव्रतों के संबंध में कोई यह न समझे कि ये किसी व्यक्ति-विशेष के द्वारा कथित या निरूपित 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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