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________________ श्रावक-जीवन का स्वरूप व्यक्ति जन्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नहीं हो सकता, उसी तरह व्यक्ति जन्म से हिन्दू, जैन, बौद्ध, ईसाई और मुसलमान नहीं हो सकता । जब व्यक्ति जन्मजात जैन ही नहीं हो सकता तो भला एक श्रावक कुल में जन्म लेने भर से वह श्रावक कैसे हो सकता है ? व्यक्ति शर्मा कुल में पैदा होकर शर्मा कहला सकता है, ओसवाल कुल में जन्म लेकर ओसवाल बन सकता है, पर व्यक्ति श्रावक तो तब ही बनता है जबकि वह श्रावक-जीवन को जिए। संभव है कि कोई अस्सी वर्ष की उम्र का व्यक्ति भी श्रावक न हो और कोई तीन वर्ष का बालक भी श्रावक हो जाए। सत्तर वर्ष की उम्र का व्यक्ति मरकर चण्डकौशिक बन जाया करता है और मात्र आठ वर्ष का अतिमुक्तक मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। आज सुबह ही मैंने एक तीन वर्ष के बालक को देखा। वह धोती पहने, कंधे पर उत्तरासन रखे और मुँह पर मुखपोश बाँधे हुए मंदिर में पूजन कर रहा है। मैं अभिभूत हो उठा उसकी उन्नत भाव-दशा को देखकर। पता नहीं, उसमें कब, कहाँ, किस हाल में श्रावकत्व घटित हो गया। जहाँ अस्सी वर्ष की अवस्था में भी व्यक्ति अपनी गृहस्थी और भोगों में रचा-बसा है, वहीं तीन वर्ष की उम्र में भी कोई श्रावक हो सकता है। ____ भगवान ने तीन प्रकार के श्रावक बताए हैं। पहला पाक्षिक, दूसरा नैष्ठिक और तीसरा साधक श्रावक। जो अष्टमी, चतुदर्शी और अन्य पर्वतिथियों पर धर्म के मार्ग का किंचित् अनुसरण कर लेते हैं, वे पाक्षिक श्रावक हैं। ऐसे व्यक्ति जो दिन-रात धर्म में रत रहते हैं, धर्म में ही जिनका मन रमा रहता है और धर्म में ही जो स्थिर रहते हैं, उन्हें भगवान ने नैष्ठिक श्रावक की संज्ञा दी है। ऐसे गृहस्थ या श्रावक व्यक्ति साधक श्रावक कहलाते हैं जो कि संसार में रहते हुए भी उसी प्रकार निर्लिप्त रहते हैं जैसे कि कमल कीचड़ से अलग रहता है। वे व्यक्ति भले ही अपनी पेंट-कमीज को छोड़कर संयम-वेश ग्रहण नहीं कर पाए, पर उनकी साधना हर पल उसी दिशा में ही गतिशील रहती है। बुद्ध ने जिसे स्रोतापन्न कहा, महावीर ने उसे ही नैष्ठिक और साधक श्रावक की संज्ञा दी है। बोलचाल की भाषा में हम कह सकते हैं कि श्रावक चार प्रकार के होते हैं। पहले, कदैया, दूसरे भदैया, तीसरे मरैय्या और चौथे सदैया। कदैया वे होते हैं जो कभी-कभी धर्म पर कृपा कर देते हैं और कभी-कभी किसी मंदिर, धर्मस्थान या प्रवचन-स्थल पर पहुँच जाया करते हैं। दूसरे होते हैं भदैया जो पूरे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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