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श्रावक-जीवन का स्वरूप
१५७ उसके भिक्षापात्र में रखे हुए बूंदी के लड्डुओं पर पड़ जाती है। उन लड्डुओं को देखकर उसकी भूख की व्याकुलता और अधिक बढ़ जाती है। वह भिखारी संत के पास जाकर अनुरोध करता है कि उसे खाने के लिए लड्डू दे दिए जाएँ। संत जवाब देते हैं कि 'मैं कुछ भी नहीं दे सकता, तुम्हें जो कुछ भी कहना है, वह मेरे गुरु के पास चलकर कहो। हमारा यह नियम है कि हम अपना आहार उसी को दे सकते हैं जो संत हो या त्यागमय जीवन बिता रहा हो। यदि तुम्हारे जीवन में भी ऐसा दिव्य और स्वर्णिम अवसर आता है तो हम अवश्य ही अपना आहार तुम्हें समर्पित करेंगे।' .
भिखारी मन में सोचता है कि यदि संत बनने पर लड्डूमिल सकते हैं तो ऐसा करने में मेरा क्या जाता है ? दोनों गुरु के स्थान पर पहुँचते हैं । शिष्य द्वारा गुरु को वृत्तान्त बताया जाता है। गुरु उस भिखारी को और उसमें छिपी हुई भवितव्यता को देखते हैं। वे उस भिखारी की होने वाली गति, सद्गति और उसके परिणाम को देखकर उसे दीक्षित कर देते हैं । संत बनने के पश्चात् उस भिखारी को लड्डुओं से भरा हुआ पात्र दे दिया जाता है । एक तो वह कई दिनों से भूखा और ऊपर से लड्डू होने के कारण यह नवदीक्षित संत अपने पेट की आवश्यकता और अपेक्षा से अधिक खा लेता है।
अजीर्ण और पेट में भयंकर वेदना! तब सभी मुनि एकत्र हो जाते हैं। उपचार के लिए बड़े-बड़े वैद्य आते हैं और नगर-श्रेष्ठी भी उस नवदीक्षित मुनि के चरणों के निकट सेवा में खड़े रहते हैं। यह देखकर उस मुनि के मन में विचार आता है, 'अहो ! कल तक जिन सेठों के घर से सिवाय दुत्कार के कुछ नहीं मिलता था,
आज वे ही सेठ हाथ जोड़कर एक सेवक की तरह खड़े हैं। कितना अद्भुत और विलक्षण चमत्कार है इस संयम-जीवन का। यदि एक दिन का संयम-जीवन इतना सुख और मान-सम्मान दिला सकता है तो यदि मैं पूर्व में ही इस चारित्रजीवन को स्वीकार कर शत प्रतिशत इसकी पालना और अनुमोदना करता तो मैं निश्चित रूप से अपनी आत्मा का निस्तार कर लेता । ___ अपच और अजीर्ण भयंकर हो जाते हैं। राजवैद्य भी कुछ नहीं कर पाते और कल तक जो भिखारी था, वह संत मरकर देवलोक में जन्म लेता है। वहाँ से च्यवित होकर सम्राट सम्प्रति के रूप में जन्म लेता है। एक ऐसा सम्राट् जिसने धर्म-संघ के विस्तार के लिए, धर्म के संदेशों को संपूर्ण धरती पर फैलाने के लिए
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