________________
१५६
जागे सो महावीर
उद्देश्य और मनोरथ श्रमण-जीवन से जुड़ा हो। एक श्रावक की प्रार्थना की शुरुआत ही इस भावना से हो कि मेरे जीवन में ऐसा अपूर्व और स्वर्णिम अवसर कब आएगा कि मैं श्रमण-जीवन को स्वीकार कर सकूँ; मैं परमात्मा के बताए गये मूल मार्ग की ओर अपने कदम बढ़ा सकूँ और भगवान के महाश्रमण, महात्याग, महाविरक्ति और वीतराग मार्ग का अनुसरण कर सकूँ। ___अगर कोई व्यक्ति अपनी प्रार्थना और साधना के दौरान मात्र श्रमण-जीवन की, संयम और त्यागमय जीवन की अनुमोदना करता है तो ऐसा करने मात्र से ही वह अपने सात-सात जन्मों के पापों को शिथिल कर लेता है। जो व्यक्ति संयमजीवन स्वीकार करता है, वह न केवल अपनी आत्मा का उद्धार कर लेता है वरन् अपनी कई-कई पीढ़ियों का भी उद्धार कर देता है। जो व्यक्ति महाश्रमण-जीवन को अंगीकार नहीं कर पाए हैं, लेकिन वे सच्चे हृदय से उसकी अनुमोदना करते हैं, वे ऐसा करके अपने भावी जीवन के लिए श्रमणत्व के बीज ही बो रहे हैं।
किसी भी व्यक्ति का संपूर्ण जीवन मात्र श्रावक-अवस्था में ही न बीते, वरन् प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में श्रमणत्व का उदय हो, चाहे वे व्यक्ति की अंतिम घड़ियाँ ही क्यों न हों। हर व्यक्ति की धर्म-आराधना का लक्ष्य श्रमण-जीवन की प्राप्ति हो। कहते हैं, राजा सम्प्रति जब प्रात: प्रार्थना और साधना के लिए बैठते तो वे अपने सामने संयम-वेश के उपकरण, देव, गुरु और धर्म से जुड़े वे साधन रखते जिनसे व्यक्ति साध्य की उपलब्धि करता है। वे यह भावना भाते कि मेरे जीवन में ऐसा अपूर्व अवसर कब आएगा कि मैं मुनि बनूँ ?
अपूर्व अवसर ऐवो क्यारे आवशे क्यारे थईशृं, बाह्यान्तर निग्रंथ जो। सर्व संबंध नुं बंधन तीक्ष्ण छेदी ने
विचरशुंकव महत्पुरुष ने पंथ जो॥ 'मेरे जीवन में ऐसा अपूर्व अवसर कब आएगा कि मैं बाह्य और आभ्यंतर दोनों ही रूपों में निर्ग्रन्थ बनूँ । सब संबंधों के तीक्ष्ण बंधनों को काटकर मैं महान पुरुषों के मार्ग का अनुसरण करूँ।
जब राजा सम्प्रति इस तरह की भावना भाते तो भावना भाते-भाते वे अपने अतीत से जुड़ जाते। वे देखते कि-अहो ! मैं एक भिखारी आ रहा है जो कि भूख से तड़फ रहा था। तभी उस भिखारी की नजर राह से गुजरते हुए एक मुनि और
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org