SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जागे सो महावीर १५४ ऐसा नहीं हो तो समझना कि तुम किसी गृहस्थ के पास ही बैठे हो। तुम्हारा उनके पास जाना वैसा ही है जैसे तुम अपने किसी पड़ोसी के पास मिलने जाते हो। वह अपनी बात कहता है और तुम अपनी बात । ऐसे ही सन्त अपना रोना रोता है और तुम अपनी गृहस्थी की बातें उससे करते हो। दोनों एक दूसरे को अपना अपना कचरा देते हैं। यदि किसी सन्त के पास बैठने पर भी हमारे मन में वही बेईमानी उठती है तो वह सन्त नहीं वरन् सन्त के वेश में एक गृहस्थ है। जिसकी संगति हमारे मन पर प्रभाव डाले, वही संत है । हम सन्तों के पास जाएँ, मौनपूर्वक बैठें और उनको जिएँ ताकि हमारा मन बदल सके, अशांति का कोहरा मिट सके, चित्त में निर्मलता और निर्विकारिता पैदा हो सके। यदि ऐसा है तो हमारा सन्तों के पास जाना सार्थक है। 'सिनक्रोनीसिटी' एक ऐसा दिव्य सिद्धान्त है जहाँ बोलना कुछ भी नहीं पड़ता, फिर भी परिवर्तन हो जाए, स्वतः ही हृदय में मेघ मल्हार उमड़ पड़े, एक रोशनी उजागर हो जाए, अन्तर में अहोनृत्य या अहोआनन्द थिरक उठे। अन्तर की । ज्ञान आचरण से मुखरित हो । यदि ऐसा है तो व्यक्ति के सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की आराधना, उसकी शांति, स्वतन्त्रता और आत्म-सत्य को उपलब्ध कर उसे स्वर्ग, मोक्ष और निर्वाण को प्राप्त कराने में अवश्यमेव सहायक होगी। यह है भगवान का मूल मार्ग जिसका परिणाम मोक्ष या निर्वाण है । आज इतना ही । आप सभी के लिए अमृत प्रेम | 000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy