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सच्चरित्रता के मापदंड
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बात उन दिनों की है जब तुर्की और ईरान में भीषण युद्ध चल रहा था। तुर्क निरन्तर हारते जा रहे थे। एक दिन सुप्रसिद्ध ईरानी संत फरीउद्दीन अत्तार तुर्कों के चंगुल में फंस गए। जासूसी के इल्जाम में उन्हें मौत की सजा दी गई। एक अमीर आदमी ने संत की जान बचाने के लिए उनके वजन के बराबर सोना दे दिया। कइयों ने उनके बदले अपने प्राण देने की बात कह दी, पर तुर्क का सुलतान तैयार न हुआ।
इतिहास कहता है कि तब ईरान का बादशाह स्वयं पहुँचा। उसने सुल्तान से कहा- 'जिस राज्य के लिए आपकी कई पीढ़ियाँ हमसे लड़ती आ रही हैं; फिर भी वह आपको नहीं मिल रहा है। आज मैं आपसे कहता हूँ कि वही राज्य आप हमसे ले लीजिए और अत्तार को छोड़ दीजिए। सूफीधर्म ने हमें सदा यही प्रेरणा दी है कि धन नश्वर है, राज्य नश्वर है, पर संत और उसका त्यागअमर है। यदि ईरानियों ने अत्तार को खो दिया तो ईरान की संस्कृति हमेशा के लिए कलंकित हो जाएगी कि हम राज्य के लोभ में एक सन्त को न बचा सके।' संत अपनी साधुता के कारण ही विश्व की विभूति कहलाते हैं। उनकी वाणी, उनकी शिक्षाएँ, उनके प्रवचन मानवमन के कालुष्य को दूर कर उसे निर्मल बनाते हैं। भला जो राज्य का त्याग कर संत बनता है, उसकी रक्षा के लिए अगर राज्य को ही न्यौछावर कर दिया जाए, तो कोई बड़ी बात नहीं है।
संत तो हमारे लिए प्रेरणा के प्रकाश-पुंज होते हैं। संत स्वयं तीर्थ-स्वरूप होते हैं।
एक बहुत ही प्यारा सिद्धान्त है-'सिनक्रोनीसिटी।' इसकी खोज कार्ल गुस्ताव ने की थी जिसका अर्थ है 'जहाँ व्यक्ति को कुछ कहना नहीं पड़े क्योंकि उसकी आभा ही सब कुछ कह देती है। जिस तरह सूरज आकाश में उदित होता है और उसकी प्रभा से कमल स्वत: खिल उठते हैं, जिस तरह कोई तानसेन दीप-राग छेड़ता है तो दीपक स्वयं ही जल उठते हैं और जिस तरह मेघ मल्हार छिड़ता तो मेघ स्वतः ही बरसने लगते हैं, वैसे ही है- सिनक्रोनीसिटी।
आपको किसी सन्त की पहचान करनी हो तो आप उनके पास जाएँ और मौनपूर्वक पन्द्रह-बीस मिनट बैठे और अपने अन्तरमन को टटोलें कि क्या हमारी अशांति मिट रही है? क्या शांति की सुवास पैदा हो रही है ? यदि ऐसा हो रहा है तो वह सच्चा संत है। संत वही है जिसके पास बैठने मात्र से मन शांत हो जाए। यदि
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