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________________ १५२ जागे सो महावीर आदि शंकराचार्य की एक प्रसिद्ध रचना / स्तोत्र है - 'भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्।' जैसे जैन धर्म में भक्तामर और रत्नाकर पच्चीसी प्रसिद्ध स्तोत्र हैं, वैसे ही यह सनातन धर्म का प्रसिद्ध स्तोत्र है। कहते हैं कि एक आदमी जिसकी उम्र साठ वर्ष के करीब थी, वह अपने घर के बाहर व्याकरण के सूत्र ऊँची आवाज में रट रहा था। तभी वहाँ से शंकराचार्य निकले और उन्होंने जब उसे व्याकरण के सूत्रों को याद करते देखा तो वे उसे संबोधित करते हुए कह उठे भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़मते, सम्प्राप्ते सन्निहिते काले नहि नहि रक्षति डूं किं करणे। का ते कान्ता, धनगतचिन्ता, वातुल किं तव नास्ति नियन्ता। क्षणमपि सज्जन-संगतिरेका, भवति भवार्णवतरणे नौका। बहुत ही सुन्दर भाव हैं। शंकराचार्य ने जब उस वृद्ध को व्याकरण के सूत्र रटते हुए देखा तो उन्होंने कहा, 'हे मूढ़मति, तेरे ये सूत्र तेरी किसी तरह रक्षा नहीं करेंगे। मरणकाल में तेरा यह रटा हुआ ज्ञान काम आने वाला नहीं है। वे आगे कहते हैं, 'अगर तेरी पत्नी मर गई और धन नष्ट हो गया है तो उनकी चिन्ता मत कर। इनका तो स्वभाव ही नाशवान है। तूयदिक्षणभर भी सज्जन या साधु-पुरुषों की संगति कर लेता है तो वह क्षण मात्र की संगति तुझे भवसागर से पार लगाने वाली नौका होगी।' इस स्तोत्र के एक-एक श्लोक बड़े भाव भरे हैं। वे आगे कहते हैं - अंगं गलितं, पलितं मुंडं, दशनविहीनं जातं तुण्डम्, वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डम्, तदपि न मुंचति आशा पिण्डम्। 'व्यक्ति बूढ़ा हो गया है, उसके अंग-प्रत्यंग गल गए हैं, वह अशक्त हो गया है, बाल सफेद हो गए हैं, आँखों से कम दिखता है, वृद्धावस्था ने लाठी भी पकड़ा दी है, कमर भी झुक गई है, फिर भी उसकी जीवैषणा समाप्त नहीं हुई है। उसकी आशाएँ और तृष्णाएँ अब भी वैसी ही हैं, इसीलिए कहा है कि 'भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्'। सारी सरपच्ची छोड़ और भगवान को भज। संसार संतों का मान करता है, सम्मान करता है। संसार के हर कोने में संत की इज्जत होती है। आखिर क्यों? क्योंकि उनके पास है समता और शांति, ज्ञान और चारित्र का समन्वय, त्याग और सहिष्णुता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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