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________________ सच्चरित्रता के मापदंड १४५ चारित्रशील तो वह व्यक्ति हो सकता है जो विपरीत निमित्त मिलने पर भी अपनी प्रामाणिकता और अपने लोभ पर अंकुश रख सके। औरों की बात तो छोड़ो, संतजन तक क्रोध, लोभ, राग और द्वेष में फँस जाते हैं। चित्त की दुश्चरित्रता का पता नहीं चलता, भीतर का कोढ़ बाहर कब उभर आए, पता नहीं। जब तक दो-चार काजू दिए जाएँ, तब तक तो वे अपने लोभ पर अंकुश रख कर कह देंगे कि हमें जरूरत नहीं हैं या हम नहीं लेते। लेकिन अब सामने थैली भर काजू आ जाएँ तो कहेंगे, ठीक है, रख जाओ। बाद में काम में ले लेंगे। भगवान ने पाँच प्रकार के चारित्र का उल्लेख किया है, पहला है - सामायिक चारित्र, दूसरा-छेदोपस्थापनीय चारित्र, तीसरा-परिहारविशुद्धि चारित्र, चौथा - सूक्ष्म संपराय चारित्र और पाँचवाँ-यथाख्यात चारित्र। इनमें से सामायिक चारित्र की साधना तब कही जाएगी जब व्यक्ति विपरीत निमित्त में चाहे वह अनुकूलता के रूप में हो या प्रतिकूलता के रूप में, स्वयं को अन्तर्द्वन्द्व से मुक्त रखता है। सामायिक चारित्र की यह साधना ही तो व्यक्ति को यथाख्यात चारित्र तक ले जाती है और उसे शैलेषी अवस्था का स्वामी बनाती है। ज्ञान के विषय में तो बहुत कुछ कहा या समझाया जा सकता है, पर चारित्र कहने की नहीं, वरन् जीने की बात होती है। हर व्यक्ति ईमानदारी से अपने जीवन को पढ़ सकता है, निरख सकता है। जो व्यक्ति जितना चारित्रमय जीवन जिएगा, उसकी उतनी ही सुवास होगी और जो नहीं जिएगा, वह उतना ही सुवासरहित होगा। दुनिया में दो तरह के फूल होते हैं एक वह जिसमें सुगन्ध होती है और दूसरा वह जिसमें दुर्गन्ध न हो। इन दोनों में बड़े ध्यान से अन्तर समझ लेना चाहिए कि पहला फूल वह है जिसमें सुगन्ध है। लोग उसे अपनी नाक के पास ले जाते हैं, महिलाएँ अपने जूड़े में वेणी बनाकर लगाती है। उसकी सुगन्ध उसे परमात्मा के चरणों तक ले जाती है। दूसरा फूल वह है जिसमें दुर्गन्ध नहीं है, पर इसका अर्थ यह भी नहीं कि उसमें सुगन्ध है यानी वह गन्धरहित फूल है। ऐसे फूल को केवल सजाया जा सकता है या उसकी सुन्दरता की प्रशंसा की जा सकती है। ऐसे फूल को व्यक्ति अपने नाक या माथे तक नहीं ले जाता। फूल में दुर्गन्ध न होना अच्छी बात है, पर उसमें सुगन्ध होना उसकी अपनी विशेषता है। ____ व्यक्ति दुश्चरित्रशील नहीं है, यह अच्छी बात है, पर व्यक्ति का चारित्रशील होना उसका अपना वैशिष्ट्य है। व्यक्ति किसी का बुरा नहीं करता, यह अच्छी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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