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________________ १४४ जागे सो महावीर पहले सजगता इस बात के लिए रहे कि मेरे काम, क्रोध, तृष्णा, वैर-वैमनस्य और विकार कैसे कट सकते हैं? इन कषायों और विकृतियों को जिससे काटा जा सकता है, उसे ही महावीर ने सम्यक् चारित्र कहा है। जो अपने चित्त की हर विकृति और कषाय के प्रत्येक स्वरूप पर विजय प्राप्त कर चुके हैं, उन्हें ही महावीर ने सम्यक् चारित्रशील कहा है। हमें जन्म-जन्म के इन कषायों और विकारों को ही तो काटना है। चारित्र को पालन करने वाले चार प्रकार के लोग होते हैं, जिन्हें चार घड़ों की उपमा से समझने की कोशिश करें। पहला घड़ा वह है जो फूटा हुआ है। ऐसे घड़े में जो कुछ भी डाला जाए, वह तुरन्त ही बाहर निकल जाता है। इस घड़े की प्रकृति वाले व्यक्ति संकल्प तो ले लेते हैं, लेकिन उन्हें भंग भी तुरन्त कर देते हैं। __ दूसरा घड़ा होता है पुराना और जर्जर । जिस तरह बूढ़े आदमी द्वारा धर्म का विशेष आचरण नहीं किया जा सकता वैसे ही ऐसे घड़े में पानी तभी तक टिकता है जब तक कि उस पर ठोकर न लग जाए। एक हल्का-सा धक्का भी ऐसे घड़े के फूटने का निमित्त बन जाया करता है। तीसरा घड़ा होता है परिस्रावी घड़ा जिसमें से बूंद-बूंद करके धीरे-धीरे पानी रिसता रहता है। इस घड़े के स्वभाव के पुरुष तब तक तो ठीक हैं जब तक निमित्त का पानी नहीं आया, किन्तु जैसे ही निमित्त का पानी आया, चाहे वह राग के रूप में हो, या द्वेष अथवा अन्य किसी विकार के रूप में हो, वह व्यक्ति स्वयं पर नियन्त्रण नहीं रख पाता। जैसे कोई शान्तिनाथ तब तक ही शान्तिनाथ बना रहता है जब तक उसे अशान्ति का कोई निमित्त न मिल जाए। कोई प्रमाणीलाल, अपनी प्रामाणिकता तब तक ही बनाए रखता है, जब तक उसे अप्रामाणिकता का अवसर न मिले। बेईमानी का मौका मिलने के बावजूद जो अपने ईमान पर अडिग रहता है, वही चरित्रनिष्ठ होता है। चौथे प्रकार का घड़ा होता है अपरिस्रावी घड़ा जो रिसता या बहता नहीं है ऐसे घड़े को सिर पर रखा जाए या जमीन पर, दोनों ही जगह समान रहता है और दोनों ही जगह बूंद भर भी नहीं रिसता। ऐसे चारित्र के स्वामी अपने संकल्प पर, अपने नियम, व्रत और इरादों पर दृढ़ रहते हैं। चाहे कैसी भी परिस्थिति हो, वे अपने मार्ग से विचलित नहीं होते। ऐसा चारित्र ही प्रणम्य और अभिनंदनीय होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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