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सच्चरित्रता के मापदंड
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को एक ही सूत्र में बांधना हो तो मैं कहूँगा कि तीनों का समन्वित रूप है 'सच्चरित्रता'। सम्यक् चारित्र को हम केवल संयमित मुनि-जीवन या श्रमणत्व तक ही सीमित न करें वरन् प्रत्येक के जीवन में प्रामाणिकता हो, यही उसके लिए सम्यक चारित्र है। सच्चरित्रता का अर्थ प्रामाणिकता, नैतिकता और ईमानदारी से है जहाँ व्यक्ति भीतर और बाहर एकरूप, एकरस और एकसम जीवन जी सके।
कोई अगर मुझे पूछे कि धर्म का सीधा-सरल अर्थ क्या है? तो मैं कहूँगा सच्चरित्रता। नैतिकता का अर्थ क्या है, मेरा जवाब होगा-सच्चरित्रता। मानवीय मूल्यों की आधारशिला क्या है? मैं कहूँगा-सच्चरित्रता। श्रेष्ठ चरित्र ही श्रेष्ठ धर्म, श्रेष्ठ समाज और श्रेष्ठ विश्व का दारोमदार है। चारित्र सुरक्षित है तो नियति सुरक्षित है। चारित्र है तो गौरव-गरिमा है। दुश्चरित्रशील लोग अपने मुकुट-ललाट को उन्नत नहीं रख पाते। वे राजा, जो चारित्रशील रहे, सैन्य-शक्ति में कम होते हुए भी विजयी हुए। उन्हें सदा मात खानी पड़ी जो अपने चरित्र को किसी के तलुवे में गिरवी रख बैठे। शिवाजी जैसे लोग आज इसलिए याद किये जाते हैं कि सैनिकों के द्वारा लायी गई बेगम को यह कहकर ससम्मान लौटा दिया कि 'माँ, काश मैं तुमसे पैदा होता तो मैं भी तुम्हारे जितना ही सुन्दर होता।' शिवाजी ने तब कहा था कि शिवा का चरित्र ही मराठों की शक्ति है। चरित्र ही गिर गया तो मराठों और आतताइयों में फर्क ही क्या रह जाएगा?
यदि आज कोई व्यक्ति अपने में सच्चरित्रता या सम्यक् चारित्र चाहता है तो मैं उसे एक सीधा-सा सूत्र देना चाहूँगा कि व्यक्ति सद्गुणों की ओर प्रवृत्ति करे और दुर्गुणों से स्वयं को बचाए। सच्चरित्रता के लिए भगवान के शब्द समझें
एगओ विरईं कुज्जा, एगओ य पवत्तणं।
असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं॥ व्यक्ति को एक ओर से निवृत्ति और दूसरी ओर से प्रवृत्ति करनी चाहिए अर्थात् असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति।
व्यक्ति को मेरी ओर से ऐसे संन्यास की प्रेरणा है जहाँ कि चोगा, वेश या बाना नहीं बदलना है। बल्कि बदलना है अपनी दुष्प्रवृत्तियों को। मैं चाहता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में संन्यास ले, संन्यास अपने अन्धविश्वासों से, अपने दुर्गुणों से, अपने क्रोध-काम-विकारों और कषायों से। जीवन की बुराइयों और अंधविश्वासों से स्वयं को मुक्त करना ही जीवन का सच्चा संन्यास है।
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