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जागे सो महावीर
पंछी अपने नीड़ में लौट आते हैं, ऐसे ही व्यक्ति साँझ ढलने पर अपनी चेतना की किरणें, चेतना के पंख, जहाँ कहीं फैलाएँ हों, स्वयं में लौटा लाएँ। तब वह स्वयं की आत्मस्थिति के लिए पुरुषार्थ करे।
एक है गति और दूसरी है स्थिति। प्रतिदिन गति होनी चाहिए, जीवन के अन्तिम क्षण में भी व्यक्ति गतिशील हो। जीवन चाहे आज रहे या सौ साल तक, स्थिति के प्रयत्न भी सदा-सदा बने रहें। जीवन का कोई भरोसा नहीं है। सौ वर्ष तक का जीवन भी मिल सकता है और बीस वर्ष में भी मृत्यु वार कर सकती है। इसलिए हर दिन व्यक्ति के द्वारा अपनी गति और स्थिति दोनों के लिए ही प्रयत्न किए जाएँ। गति और स्थिति दोनों के समन्वय का नाम ही है- 'सम्यक् चारित्र'। जो व्यक्ति अपने जीवन में आश्रम-व्यवस्था को अपनाता है, वह सम्यक् चारित्र का ही पालन करता है। पहले व्यक्ति पचास वर्ष का हो जाता था तो वह वानप्रस्थ आश्रम को स्वीकार कर लेता था। संसार में रहकर भी वह संसार से निर्लिप्त रहता था। जैसे ही उसके सिर में एक सफेद बाल आता, वह स्वयं को संसार से अलग कर लेता क्योंकि उसने अपने जीवन का आधा भाग संसार के लिए अर्पित कर दिया तो आधा भाग वह स्वयं की आत्मा के विकास के लिए सुरक्षित रखता था। यदि अस्वस्थता या शरीर में अन्य किसी पोषक तत्त्व की कमी न हो तो व्यक्ति के सिर में सामान्य रूप से आने वाला प्रथम सफेद बाल इस बात का द्योतक है कि व्यक्ति जितनी उम्र बिता चुका है, लगभग उतनी ही उम्र उसकी शेष बची है।
अब तक हम सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान के विषय में चर्चा कर चुके हैं। आज हम अपने कदम सम्यक् चरित्र की तरफ बढ़ा रहे हैं। सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन का विवेचन पहले इसलिए किया गया, ताकि व्यक्ति पाखंडी चारित्र का स्वामी न हो। बाहर से कुछ और भीतर से कुछ और। महावीर ने सम्यक् चारित्र की प्रेरणा दी, पर उससे भी पहले सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान को आत्मसात् करने की बात कही , ताकि व्यक्ति के जीवन में कथनी और करनी में एकरूपता रहे। महावीर ने कहा कि सम्यक् दर्शन के दीप जला दिए जाएँ और सम्यक् ज्ञान के बीज बो दिए जाएँ, उसके बाद मुक्ति के मार्ग पर खड़े सम्यक् चारित्र रूपी मील के पत्थरों को पार किया जाए।
महावीर ने जिसे 'सम्यक् चारित्र' कहा, बुद्ध ने उसे ही 'शील' कहा और गीता में उसे 'सदाचार' कहा गया। यदि सम्यक् चारित्र, शील और सदाचार तीनों
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