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सच्चरित्रता के मापदंड
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ज्यों-ज्यों आदमी की उम्र ढलान पर होती है, उसके जीवन में धर्म चरितार्थ होता है। उस धर्म का परिणाम संन्यास होता है और संन्यास का परिणाम मुक्ति या निर्वाण के रूप में फलित होता है। ___महावीर, बुद्ध, गौतम और बोधायन जैसे लोगों ने इस आश्रम-व्यवस्था में आवश्यक परिवर्तन करना चाहा क्योंकि उनके अनुसार व्यक्ति की मृत्यु किसी भी क्षण हो सकती है। इसलिए यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति जीवन के इन चार चरणों को पूरा कर सके। उनका मानना था कि संन्यास और धर्म आयु से बंधा हुआ न हो। व्यक्ति के हृदय में जब धर्म और संन्यस्त जीवन जीने के भाव हों, तभी उसे यह मार्ग अपना लेना चाहिए। महावीर और बुद्ध की प्रेरणाएँ श्रमणत्व या संन्यस्त जीवन की रहीं। लेकिन आज व्यक्ति अस्सी वर्ष की आयु में भी संसार के दलदल में फंसा है। वह अपनी मुक्ति के लिए, अपने पूर्ण नि:श्रेयस के लिए प्रयत्नशील नजर नहीं आता। यह आश्रम-व्यवस्था निश्चित रूप से मानव मात्र के कल्याण के लिए एक अनूठा उपादान है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी ओर से प्रेरणा दी, गति और स्थिति की। उन्होंने यह मानते हुए कि व्यक्ति की उम्र यदि सौ वर्ष है तो वह प्रथम पचास वर्षों में अपनी गति के लिए प्रयत्नशील रहे और शेष पचास वर्षों में अपनी स्थिति के लिए पुरुषार्थ करे, क्योंकि जीवन के इस प्रथम चरण में इन्द्रियाँ बहुत ही सशक्त होती हैं, ऊर्जा का संगठन होता है जिसका उपयोग व्यक्ति अपनी गति के लिए, अपने विकास के लिए, कर्मयोग की साधना में करे। व्यक्ति को इस बात का ख्याल रहे कि जैसे ही उसके सिर में एक भी सफेद बाल आ जाए, वह सचेत हो जाए क्योंकि वह सफेद बाल अपने आप में ही इस बात की प्रेरणा है कि जितना तुम्हें करना था तुमने कर लिया। अब लौट आओ अपने भीतर के घर में।
रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा दी गई गति और स्थिति की यह व्यवस्था व्यक्ति की आम जिन्दगी के साथ गहराई से जुड़ जानी चाहिए कि जहाँ व्यक्ति प्रतिदिन गति भी करे और स्थिति भी। जैसे सूरज उगता है, चिड़िया चहचहाने लगती है, गौरेय्या गाने लगती है, बाकी परिन्दे दाने-पानी के इंतजाम के लिए सुदूर आकाश में उड़ जाया करते हैं, ऐसे ही व्यक्ति दिन में अपनी आजीविका के लिए, अपने जीवनव्यवस्थापन के लिए, जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए कर्मयोग करे। साँझ को जब सूरज ढलता है तो किरणें सूरज की आगोश में समा जाती हैं, सारे
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