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जागे सो महावीर
अद्भुत समर्पण है कि जहाँ भक्त और भगवान के बीच की दूरी ही मिट गई है। भक्त को हर कण में, हर कार्य में, हर व्यक्ति में बस एक ही रूप दिखता है।
रैदास, जिनका पूरा नाम कविरविदास था, वे मोची थे। उनका कार्य था मृत पशुओं के चमड़े से जूते बनाना। आप कहेंगे कि छीः छीः! कितना घृणित और बुरा कार्य था, पर वे जब चमड़े को सीने के लिए उसमें सुई डालते तो उनको उतनी ही वेदना होती थी जितनी स्वयं के शरीर में सुई चुभाने से होती है। वे देह में रहकर भी देहातीत अवस्था को प्राप्त हो गए थे, विदेह हो गये थे। 'प्रभु जी तुम चन्दन, हम पानी।' कितना भक्तिरस है !
इसीलिए भगवान ने कहा कि जब अतिशय रस के अतिरेक से अपूर्व श्रुत का अवगाहन किया जाता है, उस ज्ञान में डुबकी लगाई जाती है तो नित नूतन संवेग, वैराग्ययुक्त श्रद्धा प्राप्त होती है। मूल बात है रस की, लगन की। व्यक्ति वहीं एकाग्र हो सकता है जहाँ उसे रस आता है, इसलिए ज्ञान प्राप्त करने के लिए पहली शर्त है कि वह उसमें अतिशय रस पैदा करे। ज्ञान वह नहीं है जो कि भाषण झाड़ने, प्रवचन देने या दूसरों पर अपना प्रभाव जताने के काम आए। ज्ञान तो वह है, जिससे तत्व का बोध हो, व्यक्ति श्रेय की तरफ उत्प्रेरित हो, जिससे आत्मज्ञान हो। जिनशासन में उसे ही तो ज्ञान कहा गया है। जिससे चित्त का निरोध हो, आत्म-शुद्धि हो और जगत के प्रति मैत्री-भाव बढ़े, भगवान उसे ही ज्ञान कहते हैं।
जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि। _ जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तंणाणं जिण सासणे॥
ज्ञान का अर्थ वाद-विवाद या तर्क-वितर्क नहीं है। ज्ञान तो आत्मा की सुवास है, आत्मा के लिए प्रकाश है जो हृदय में वैराग्ययुक्त श्रद्धा से हृदय को आह्लादित करता है। आज तो ज्ञान का उपयोग दूसरों पर प्रभाव जताने के लिए
और प्रदर्शन के लिए किया जाता है। ऐसे ज्ञानी की स्थिति उस चम्मच के समान होती है जो हलवे के पात्र में बार-बार जाता है, फिर भी हलवे की मिठास से वंचित रहता है। हलवे में पड़े रहने पर भी वह उसका रसास्वादन नहीं कर पाता। ज्ञान तो वह है जिसका परिणाम जीवन में दिखे। बातों के बादशाह हजारों मिल सकते हैं, पर आचरण के आचार्य मिलना सहज नहीं है।
तर्क ज्ञान के विस्तार और विकास में सहायक हो सकता है, पर कुतर्क नहीं। कुतर्की की स्थिति तो उस चूहे के समान है जो कुतर-कुतर कर सामान की भी
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