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________________ १३४ बुद्धि तीक्ष्ण करती हैं। मूल बात है उनकी लगन, एकाग्रता और रुचि । अभी परसों ही एक साध्वी जी मेरे पास आई और एक संत का चित्र बताकर कहने लगीं कि ये एक दिन में सौ गाथाएँ याद कर लेते हैं। उनके लिए शायद यह आश्चर्य का विषय होगा पर मैं जानता हूँ कि व्यक्ति की जिस क्षेत्र में लगन होती है, उसका उस क्षेत्र में पूर्णतया अधिकार होता है। एक बच्चा वह है जिसे पढ़ने में 'रस' (आनंद) मिलता है । उसे माँ आवाज देती है, 'बेटा अब पढ़ाई छोड़ और खाने आ जा ।' बेटा कहता है, 'माँ, बस थोड़ी देर में आता हूँ ।' और दूसरा बच्चा वह है जो दिन भर खाने-पीने में लगा रहता है । माँ कहती है, 'बेटा ! पूरे दिन खाता रहता है, जा थोड़ी देर पढ़ ले ।' बेटा कहता है 'माँ, अभी खाने दे, बाद में पढ़ लूँगा ।' एक का पढ़ने में रस है तो दूसरे का खाने में। हम बच्चे पर जबरदस्ती अपनी मर्जी न थोपें बल्कि यह सोचें कि बच्चे की लगन पढ़ाई में कैसे जगाई जाए? ध्यान रखें कि व्यक्ति की जिस क्षेत्र में लगन है, उसे उस क्षेत्र में शत-प्रतिशत सफलता मिलेगी । इन दिनों क्रिकेट का जुनून कुछ कम हो गया है, वरना जब क्रिकेट की कमेन्ट्री आती है तो व्यक्ति चाहे दूकान में बैठा हो या कहीं और, वह अपने कानों पर रेडियो सटाकर उसको सुनने में इतना तल्लीन होता है कि ग्राहक आए या जाए, उसको कोई फर्क नहीं पड़ता । व्यक्ति की लगन और तल्लीनता जहाँ होती है, उसे मात्र वही सुनाई देता है और वही दिखता है। बच्चे को माँ आवाज लगाती है, 'बेटा! रोटी का कटोरदान कहाँ है?' बेटा क्रिकेट देखने में व्यस्त है। जवाब आता है, 'बाउन्ड्री पार ।' माँ पूछती है, 'क्या मतलब?' बेटा बोलता है, 'अरे ! सचिन ने छक्का लगाया।' बेटे के लिए माँ की बातें अर्थहीन हो रही हैं क्योंकि उसका रस, उसकी लगन कहीं और है । आप लोग गाते हैं, 'तुम से लागी लगन... ।' अगर आपकी लगन भगवान से लग गई तो आप बाजार जाकर भी किसी मंदिर की परिक्रमा दे रहे होते हैं। यदि लगन नहीं है तो आप जैसे खाली हाथ मंदिर जाते हैं, वैसे ही खाली हाथ लौट आते हैं। आजकल के विज्ञापनों में भी वस्तुओं का प्रस्तुतीकरण इस प्रकार किया जाता है कि विज्ञापन देखते ही व्यक्ति की रुचि उस वस्तु को प्राप्त करने के लिए ललक उठे। वस्तुओं में कुछ दम नहीं होता, पर आकर्षण होता है। एक विज्ञापन था । एक महिला बाजार जाती है तो दूसरी महिला उससे मिलती है। वह पूछती है, 'जानती हो, तुम्हारे पति क्या पसन्द करते हैं?' पहली जवाब Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003888
Book TitleJage So Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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